मन की मन में / man ki man mein
मन की मन में
इस निर्मोही मन की छाया,
तन को तर ही पाया,
विकट राह पर द्रवित है,
अधर गदर मन भ्रमित है।
विश्राम नाम ना, कामगार बस,
समय रफ्तार मन से हार कस,
चलता रहा नित निरंतर,
मन में भरा छोङ अंतर।
सुकुन आस ना चखता तन का,
क्षण भंगुर आराम आता,
एकांत में मन भर जाता।
एक पल मन की सुनी ना जाती,
टुट जाओ तब तक काम गाती,
काया रत अपने सुर में,
मन की दबी है बस अब मन में,
अश्रु पुरित भाव विभोर है,
हर पल मन की चाह छोर है,
रुकती नहीं चाह मन की,
चलती रहती मन ही मन की,
संध्या हुई विकल तन की,
भौर ढुढंती ्परछाई कण की,
बिन मन तन को कुछ नहीं भाया,
द्रवित करती निर्मोही मन की छाया।।
- कवितारानी।

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