बङी बेकद्र रही / badi bekadra rahi



बङी बेकद्र रही


जो कहते रहे मेरे अपने हैं, वो कभी समझ ना सके मेरी अपनी।

जो कहते रहे मुझमें समझ नहीं, वो कभी मानें नहीं मेरी।

बङी बेकद्र रही मेरी उस जमानें में, जब बङी जरुरत थी मेरी कद्र की।

बङी मुश्किल थी जिन्दगी मेरी उस जमानें में, जब आसान थी जिन्दगी मेरी।।


होंसलों को बटोर तुफानों को पार कर आया अब।

जहरीले दंश सहते-रहते भी बच आया अब।

जो कहते थे नालायक, बोझ, निठल्ला, आवारा वो सब।

कहतें हैं मैं बदल गया किनारों पर आकर अब।।


जो काटते थे मधुर मुस्कान पर भी, वो मुस्कुरातें हैं।

जो निचा दिखा-दिखा डाटते थे, वो निचे हैं।

बङी बेकद्री से पिटा जाता था जब, अब भूल सब कद्र करते हैं।

जो मुश्किल है भूल जाना मेरे लिये, उसे सब भूल ही गये।।


आसमान पर पंख फैलाये उङ रहा हूँ अब।

जमीन पर रह गये वो देखते हैं सब।

मेरी ऊँचाई ज्यादा नहीं पर अहसास हो गया है।

बङी बेकद्र करी उन्हें कुछ अहसास हो गया है।।


जो गुजर गया जमाना, मैं उसे गुजरा मान लेता हूँ।

जो सहे दर्द मैंने उन्हें ठीक हुआ मान लेता हूँ।

पर भुले ना जाते मन पर लगे घाव मेरे, जो भूल गये लोग।

बङी बेकद्र रही जिन्दगी जो होनी थी कद्र भरी।

बस आता रहता यही याद।।


-कवितारानी।


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