मैं भ्रमर | main bramar
मैं भ्रमर
काला कलुटा, मन मैला, मैं छोर कहाँ रूकता।
कभी इस फुल, कभी उस फूल एक पर कहाँ टिकता।
दोष मुझ पर होते सारे, लोग कहते फुल हारे।
मैं भ्रमर मंडराता, मन ही मन अभागा कहलाता।।
मौज कहे जग मेरा, ओज बस पल भर का।
फूल ना शरण देता, भूखा रखता तो उङता।
मैं हर बाग भाग-भाग कर चरता रहता।
मैं भ्रमर भ्रम में रहता अपनी हर फुल को कहता।।
कलियाँ होती इठलाती, फुल बन इतराती।
रस जरा सा पाकर ही, गर्व से सिर ऊँचा उठाती।
श्रृंगार देख-देख खुबसुरती, चुन ली जाती सुंदरता सारी।
मैं भ्रमर मद का प्यासा-प्यासा ही रहता मंडराता।।
कुछ फूल खिलते मदमस्त होते, हवा में खुद मौज करते।
धूप सहते हवा सहते, भ्रमर को बैठने ना देते।
शाम होती होती मुर्झाते है, एक पल सुबह को पछताते हैं।
मैं भ्रमर भुखा कुछ ना कहता, जो मिलता उसे लेता।।
देख तितलियाँ खिंचा जाता, नव फुल पर मोहित होता हूँ।
सुन आवाज फुल लुट जाते, मेरे काले रंग से दूर जाते हैं।
रंग बिरंगी तितलियाँ रहती और रहते फुलों के प्यारे।
मैं भ्रमर वन को जाता रह अकेले जग को गाता।।
मैं भ्रमर प्यासा का प्यासा, बचे रस को चख आता।
रहता अपनी धुन में ही, कहता कभी तो खुद से ही।।
-कवितारानी।

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