मेरी शामें | meri shame
मेरी शामें
दिन, दुपहर, शाम मेरी।
बसर ना होती ये पहेली।
क्या-क्या यत्न प्रयत्न अठखेली।
क्या चाह क्या राह मेरी।
कट रहे पल और छिन रहे दिन।
उम्र का हिसाब नहीं।
चाहे जो मन मिला वो खिताब नहीं।।
कोशिशें हर पहर बेहतर बनने की।
आदतें ले जाते और सपनों की।
खिंच लेती दुनिया हसीन।
और देखता दुनिया के दिखते सीन।।
सब अपने स्वार्थ के गढ़े हैं।
अपनी धून में अपने राग पर अङे हैं।
याद करते वो जिन्होने कभी याद ना किया।
जिन्होने साथ दिया वो तकते रहते हैं।
मैं अभी भी रसमय की राह पर।
कराह लिये मन चल रहा पर।
वो बात नहीं जो सपने में हैं कहीं।
मेरी दुपहर में ना रात रात में नींद कहीं।
वही दौङ सुबह की।
वही शाम की तन्हाई भी।
कसर ना होती पूरी कभी।
बसर ना होती पहेली अभी।
मैं वैसे बेहतर जी रहा हूँ।
पर आज भी गम पी रहा हूँ।
मेरी शामें गुजरी है कभी।
आज कल कटती है मुश्किल से ही।।
-कवितारानी।

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