मुकद्दर मेरा / mukaddar mera
मुकद्दर मेरा
चेहरे पर हॅसी देख लोग खुश थे।
वो बचपन लाचार मासुमियत भरा था।
साथ ना देकर बेचारा कहता।
जग मेरी मुस्कान को खुशी कहता था।।
कौन जानता जख्म है भी या नहीं।
देख हालात सब हौंसला देते बस था यही।
था ना साथ कुछ सिवा तब भी खुद के ही।
हाय मुकद्दर मेरा लेता रहा फिर करवट।।
मेहनत की खुब नींद औझल की।
भूल अपनों को और जख्मों को, सपने की बात की।
मुस्कान जमी थी जैसे बचपन की।
अकेला खङा था और आस दुआ की।।
बदले हालात रहम हुई रहमत ईश्वर की।
घर बदला, हालात बदले, बदली खोई मुस्कान भी।
अपने सपने को पाने को कुछ चढ़ाई की।
मुकद्दर मेरा लोग हॅसी देख कहते आपकी ही बात की।।
अनजान लोग, अनजान हॅसी दबी सी।
जलते खामोशी से कुछ-कुछ सादगी की बात की।
मैं चलता, करता अपना काम कुछ कहे कोई बस शाँति थी।
मेहनत में कमी पर सपनों की छाँव थी।।
कम समय, बंदिशे साथ रहने की।
चलता रहता हूँ बढ़ने की सोंच रखी थी।
जलने वाले बढ़ने लगे, बचपन की हॅसी गुम सी।
हाय मुकद्दर मेरा असली खुशी कम थी।।
-कवितारानी।

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