पथिक खुद को ना भटका | Pathik khud ko na bhatka

 पथिक खुद को ना भटका

जब कुछ ना था तो लङ रहा था ना, जीवन शिखर को पाने को अङ रहा था ना।
लगा रहता पाने को सपने अपने, संघर्ष करता रहता था पाने को उन्हें।
अब जब सफलता के कुछ कदम बढ़ाये, दुख की घटायें दूर करता जाये।
क्यों तो अब रुक रहा है, पथिक यहाँ आके क्यों भटक रहा है।।

सोंच रखी है मंजिल ऊँची, सपनों की मंजिल जब अधूरी।
राह के रोङे जब हट गये, समतल भूमि पर चल रहे।
सवाल है कई और है समाधान कई, करता दुखो को दान कहीं। 
तो क्यों यहाँ रुक रहा, अपनी मेहनत से क्यों भटक रहा।।

किया शुरू जब कुछ ना था, ईश्वर भरोसे सफर कटना था।
साथ कोई ना पास कोई था, अपने दम पर ही जब चलना था।
जब हल ना था तो चल रहा था, अब तो सिख गया, अब क्यों रुक रहा।
अब पथिक क्यों अटक रहा, अपनी राह से क्यों भटक रहा।।

इतिहास सबका पन्नों में दर्ज, जो कुछ ना है उसी को अर्ज।
ना तुझपे कोई कर्ज, रखता शांत तु अपने फर्ज।
फिर क्यों ना करता खुद को मानवता के शिखर पर दर्ज।
क्यों अब खुद ही झूक रह, पथिक यहाँ आके क्यों भटक रहा।।

ये राह दूर तक की ठानी थी, सीढ़ी-दर-सीढ़ तुझे बढ़नी थी।
सुविधा के आयाम गढ़ने थे, मंजिल सपनों की पाने को, पन्ने पढ़ने थे।
ये जो लिख रहा लिखा कहीं और भी देख जरा, कहाँ खोया है सोंच जरा।
क्यों इस दुनिया के माया जाल में पङता है, पथिक इतना आके क्यों रुकता है।।

जब अपनी पुरी मेहनत करेगा, ईश्वर से वर देने को कहेगा।
मेहनत तेरी रंग लायेगी, सपनों की मंजिल खुद आयेगी।
एक समय तक ही तो चलना है, किसी से तुझे नहीं डरना है।
यहाँ तक अब आ गया, अब आगे जा, पथिक खुद को ना भटका।।

-कवितारानी।


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