मैं मन का मारा | Main man ka mara




मैं मन का मारा 


एक एकान्त का लेकर सहारा ।

बन रवि फिरूँ मारा - मारा ।

था कभी जो मन आवारा ।

लगता है जैसे अब है हारा ।।


हाय लगे कभी लगे अभागा ।

बोझ बेवजह लगता सारा ।

कभी ठोकर जग पग - पग देता आ रहा ।

लगे कभी मैं मन का मारा ।।


नित कर्म का मैं मारा ।

लगा रहता पुरा दिन सारा ।

कुछ मन में सोंचा ना जा रहा ।

बस समय सा चलता जा रहा ।।


है अधुरा अभागा भाग्य का ।

जग चतुर, मन मेरा नादान रहा ।

नित नियम में चलता जा रहा ।

बस मन का मैं मरता जा रहा ।।


शांत साँझ मध्यम हवा ।

मन ढुंढे जग दवा ।

जग जब औझल करे जा रहा ।

मन पर बोझ बढ़ता जा रहा ।।


है रवि अथक पथ पर जाता ।

दिन भर मन रथ पर पाता ।

बोझ भावी जग के उठाता ।

लगता कभी-कभी मैं मन का मारा ।।


 Kavitarani1 

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