मन की | man ki bat
मन की...
कहीं मन की मन में ना रह जाये ।
कहीं मन की मन में ना मर जाये ।
हाँ डरता हूँ,
अब खुलकर कहता हूँ,
थोड़ा चिढ़ा सा रहता हूँ,
मैं विरह सहता हूँ ।
कहीं सपनें सपनें ना रह जाये ।
कहीं अपने मन में ना मर जाये ।
कहीं अधुरा ही ना रह जाऊँ ।
मैं इच्छाओं से डरूँ,
कहूँ ना किसी से व्यथा,
व्यथा दर्द खुद पी जाऊँ,
हाय ! पीड़ा भारी है ।
मन पर लोक भारी है ।
कहना क्या उम्र जाती है ।
मेरे से कितनों की बात निराली है।
ये सोंच के घबराऊँ,
कहीं तन का प्यासा ना मर जाऊँ ।
हाय में एकान्त ही ना रह जाऊँ ।
Kavitarani1
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