मेरी थी क्या खता / meri thi kya khata


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मेरी थी क्या खता 


फिर से सुनाने को कोई नहीं पास ।

अपनें गम बतानें को आया नहीं कोई रास ।

फिर तुम्हें ही सुनाता हूँ ऐ जिन्दगी ।

तुही सुन क्या शिकायत है अपनी बंदगी ।।


कहने को फिर खास थी ।

वो दोस्त जैसी मन की साफ थी ।

कर दिया काॅल अपनी बताने को ।

सुन रहा था जब तक था सुनने को ।

फिर मेरी बारी आयी कहने की ।

कही खुलकर अपनी ही ।

बस मान बैठा खास सा उसे ।

दिल से बता बैठा पास का उसे ।

मस्ती मजाक ही तो थी ।

चिढ़ गई और रूठ गई ।

अब तु ही बता ऐ जिन्दगी ।

इसमें मेरी क्या खता थी ।।


दिलबर मान दिल के हाल सुनाना मुश्किल ।

अपना जान खिलखिलाना और मुश्किल ।

लड़ना-झगड़ना आम रहा था और क्या करता ।

बात ही तो की थी खुलकर और मेरी थी क्या खता ।।

 

Kavitarani1 

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