जोश चाहिये | Josh chahiye
जोश चाहिये
मैं उठ तो गया हूँ, पर जोश नहीं है ।
करना क्या है अभी होंश नहीं है ।
आशाओं के दीप बुझे, सुरज की रोशनी मध्यम लगे ।
मैं सोंच रहा ऊर्जा कहाँ से पाऊँ अब ।
मुस्कान नहीं, कैसे मुस्कुराऊं मैं ।
मुहँ धोने से चमक नहीं आई है ।
चिंता मेरे भविष्य की माथे पर चढ़ आयी है ।
रेखायें बढ़ती उम्र की मोहताज ही ।
और में बैठा अभी भी नदी के किनारे ही ।
अब आगे जैसे रास्ता नहीं ।
नदी पार करूँ बह जाऊँ डर है ही ।
पिछे वापस जाने की हिम्मत नहीं ।
किनारे पर ठहलूँ पर कब तक ।
सोंच रहा कोई आये पतवार बनकर ।
कोई पुल बनादे तेज बहाव पर ।
मेरे तैरने की अब ताकत नहीं ।
होंसलो की उड़ान अब रही नहीं ।
उड़कर पार करूँ दरिया, हिम्मत नहीं ।
कोई आये साहस दे, बुझ रहे दीपक को ईधन दे ।
भर जोश ज्वाला से, फिर ना डरूँ डूबने और बहने से ।
यहाँ रहने से घूटने से अच्छा है ।
मैं जाऊँ कोशिश करूँ पार करूँ दरिया को ।
हाँ मैं तर जाऊँ दरिया को ।
मुझे जोश चाहिये, काम ले सकूँ तन-मन होश चाहिये ।
आगे बढ़ना है, मुझे तो दरिया का दुसरा किनारा चाहिये ।
बढ़ना है तो ताकत और उम्मीद का दुसरा किनारा चाहिये ।
बढ़ना है तो ताकत और उम्मीद का जहान चाहिये ।
मुझे जोश चाहिये ।
Kavitarani 1
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