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सुनी भाग-4 विध्यालय में / suni part-4 vidhyalay mein

सुनी  भाग-4 विध्यालय में घुँघुँरु की मधुर धुन से, चहलकदमी के शौर तक, आँगन-आँगन से अब, विध्यालय की ढेळ तक। अपने गाँव की शाला में, जाती है रोज बन बाला ये, अक्षर ज्ञान से तुरंत परिचित, मधुर मुस्कान चिरपरिचित। प्रथम पाठ पुरा हुआ तेज से, द्वितीय में दिखा कुछ वेग से, तृतीय तक थी कुछ आनाकानी, चतुर्थ में नियमित हुई सयानी। पांचवी तक आते-आते, दिखा दिया ज्ञान मन भाते-भाते, सबकी बनी चहेती सी, कुछ औसत कुछ तेज सी। तिसरी-चौथी पंक्ति भाति, कभी कभार अंतिम पंक्ति हो जाती, प्रथम पंक्ति दुर्बर दिखी, शैतानी भी की पढ़ाई भी की। मधुर बातें ही अक्सर सुनी, वो बाला अक्षर की हुई धुनी, सब कुछ रट झट याद करती, सबसे पहले रहने को मरती। रोज तैय्यार होके जाना,  अपने जमें पर रोब दिखाना, दो चोटी में प्यारी गुङिया, मंजरी आँखों वाली वो भुरी गुङिया। कभी माँ कभी पापा आते, कभी भाई, बहिन ले जाते, छोटी थी अनजानी थी सुनी, आवाज देती कहती मेरी नहीं सुनी। अपने मन की रानी थी, जिद जब-जब उसने ठानी थी, चाॅकलेट पैसों से काम ना चलता, पापा की फटकार से मुॅह चिढ़ता। रोज समय पर काम करती, विध्यालय में आदर्श सी बनती, कोई श्रेष्ट जो उसस...

सुनी भाग-3 बाल जीवन / suni part-3 Bal jivan

सुनी भाग-3  बाल जीवन   सुदूर शहर से उपवन किनारे, सरिता जिस गाँव के चरण सँवारे, विध्यारागी चहल आँगन में, जब सुनी चित्कार घङी मंगल में। अनुजा सबकी विशाल कुटुम्ब में, दौङती फिरती आँगन-आँगन में, वो खैल-कुद में अग्रगामी थी, कहा कुछ भी तो, सबने सुनी थी। सुंदर मुख तेज प्रतापी दिखता, चंचल, चपलापन उसपे जचता, लाङ प्यार ने आजादी दी, हर बात उसकी सबने सुनी थी। धुल-मिट्टी से फर्क ना पङता, गुड्डे-गुड्डी से बचपन बढ़ता, गाँव सखाओं मे सबसे प्यारी थी, हर घर में जाती जहाँ उसकी सुनी थी। अपने ज्ञान का परचम लहराती, अपनी धुन में गाती जाती, कोई नहीं पराया लगता, उसे बस हरदम मौज जमता। हुङदंग से दंग करती थी, हमेशा सबसे लङती थी, आँसुओं से लगाव था जैसे, समझती नहीं थी कोई समझाये कैसे। जैसे-जैसे साल गुजरे, शाला में जाती अब पढ़ने, सारा सार अपने मे रखती, पढ़ने में ध्यान रखती। घर आते कुएं पर जाना, कुआँ भरा तो कुएँ में नहाना, नदी चढ़ी तो कलाबाजियाँ की, बचपन में खुब शैतानियाँ की। पेङ पर चढ़कर कुलाम खैली, आम, अमरुद पेङ पर तोङे, चोरी-चुपके शहद भी तोङे, नेता बनी तो अपनी टाली। हमजोली की बना के टोली, गाँव बसा मिट्टी क...

सुनी, भाग-2 मुलाकात / suni, part-2, mulakat

सुनी,  भाग-2 मुलाकात मैं तुफानों को समेट, पुरब से पश्चिम तक होके, देख आया जीवन बयार सारी, अब मध्य में पहाङों की बारी। प्रथम दृष्टा मनोहर थी, आभा उसकी नव योवन सी, श्वेत वर्ण कंचन थी, अनंत जीवन वो सुनी थी। शर्माई कुछ-कुछ घबराई, पास आकर बात बढ़ाई, मुलाकात में कुछ खास ना था, पर जीवन का यह मोङ था। मुङ जाती अपनी धुन में, स्वार्थ था अपने गुन में, कर्तव्य पथ पर अटल दिखी, ज्ञानी सी थी पर नव सीखी। हर बात पर अपनी दात लेती, खुलकर हॅसती मन हर लेती, रहती ना उसकी कहीं कोई बात अनसुनी, वो पहली मुलाकात में लगी सुनी। एक शब्द में उसका अंत नहीं, बातों में उसके सार कहीं, हार नहीं मानती थी, खुद को हमेशा संवारती थी। अंजन नित नयन करके, आइने को रंग करके, आइने को आते निहारती थी, बार-बार खुद को संवारती थी। कल का मैल आज ना भाता, जो भी पहने खुब सुहाता, आता ना था वस्त्र विधान भारी, पर अपनी मनमर्जी में कभी ना हारी। केश सज्जा की निपुण नारी, साङी पहन थी सबकी प्यारी, शाला उत्सव की वो गाथा, उसके बिना प्रांगण सुना कहलाता। हर चीज पर अपनी राय रखती, अच्छी सिख को ही तकती,  तकते सब नयन भर-भर कर, रोकती नहीं सिर चढ़ कर।...

सुनी ; भाग-1 लेखक की प्रेरणा अभिव्यक्ति / suni - Introduction; part-1

सुनी ः भाग-1  लेखक की प्रेरणा अभिव्यक्ति  (एक अनसुने संघर्ष की कहानी) यह कहानी बाल विवाह कुरुति पर आधारित है, ईसमें एक बालिका के जीवन चरित्र को प्रदर्शित किया गया है जो अपने समाज, परिवार, रितियों की परवाह किये बिना बढ़ती है। क्र. सं.      विषय 1.     लेखक की अभिव्यक्ति 2.     मुलाकात 3.     बाल जीवन 4.     विध्यालय में 5.     बाल विवाह 6.     सामाजिक जीवन 7.     महाविध्यालय 8.      शिक्षक - प्रशिक्षण 9.     स्नोत्तकोत्तर 10.     परिवारिक दबाव 11.      धर्म अर्थ संकंट 12.     संघर्ष 13.      प्रेम बंधंन 14.     विरह 15.     व्याख्याता 16.     दोस्ताना 17.      प्रत्यक्ष 18.      उपसंहार भाग - 1 लेखक की प्रेरणा अभिव्यक्ति     हम वर्तमान में इक्कीसवीं सदी के भारत में अपने-अपने अक्षांशों-देशांतरों में बैठे जहाँ आधुनिक मानवीय जीवन का आनन्द ले रहें हैं...

Tomorrow

Tomorrow Today is mine, I take it fine, I fall everything on time, Happiness got roll. Everything feels in mind. Will it be lost tomorrow? Answer troll at all. No worry, How I live. Everything I do believe. I feel happy in alone. The corner of my home. Call me to take some wine, I feel there much fine. Nothing I have then. Nothing in my mind. leave me alone. I don't think about tomorrow. Who's know about tomorrow. How will be my tomorrow! -kavitarani1

मैं आज जीता हूँ कल का पता नहीं / Main aaj ko jeeta hun kal ka pta nhi

मैं आज जीता हूँ कल का पता नहीं पल भर के लिए रुकता हूँ, हॅसने के लिए। जो ठोर मिल जाये मुझे समझने के लिए। मैं कल पर शिकवा नहीं करता रोने के लिए। साथ लिए चलता हूँ सपने, आज के लिए। सब कहते हैं कल की सोंच भी लिया करो तुम जरा। मैं कहता हूँ, मैं जीता हूँ आज को कल का पता नहीं। ना सुनहरे रास्ते कल के मन भाते हैं। ना आभा नयी सुबह की जगाती है। रात के तारे, दिन के फव्वारे सारे। समझा नहीं पाते आज को हमारे। कल की सोंच आज बिताया नहीं करता अब। मैं आज जीता हूँ कल का पता नहीं कुछ। आखरी कुछ सालों तक, हर महीनें, हर दिनों में मैंने। कुछ परखा है अपने आप को, समय को, हालातों को। बहुत कुछ रह जाता है हर समय आज को। जब-जब मैंने सोचा है जीना है कल की बात को। समझ गया हूँ जीवन के एक आयाम को। वक्त वही बहतर है जो देता निरंतर काम को। छोङा ना कुछ कल पर अब मैंने जो आज हुआ नहीं। मैं आज जीता हूँ क्योंकि कल का पता नहीं।। -कवितारानी।

एकान्त में / akant mein

एकान्त में कोई कहे कुछ ना, सुनता ना मन का। मैल हुआ ना फिर भी शांत ये, बैठा हूँ आज भी एकान्त में। शौर सब और है, बैठा एक ठोर मैं। आती ना आवाजें, सुनने को बातें। कलरल फिर भी जैसे कोई बाढ़ है। अजरज में हूँ एकान्त मेैं।। गली-गली भटका, भीङ में भी अटका। मिला कोई कान्त वे, रहा फिर भी एकान्त मैं। जाती नहीं यादें, मिटती नहीं बातें। बदलता नहीं मन का मान रे। सुनता नहीं किसी की कान्त ये। हुँ आज भी एकान्त में।। बदली आती जाती, शौर गर्जन गाती। मानसुन की होती रहती फुहार ये। बुझती नहीं नयनों की प्यास रे। रहता फिर मैं एकान्त में।। चुभन दम भरती आहें आग करती। भरती है आहें आवाज ये। करती रहती अशाँत तन ये। हुँ आज भी एकान्त में।। सुनता ना मनकी, में गलता रहता बन मिट्टी। होती ना शाँत, हुई जो भ्रांत है। आज भी हूँ, मैं एकान्त में।  आज भी हूँ एकान्त में।। -कवितारानी।

ना मिलना / na milna

ना मिलना वो प्रित ना मिलना मुझसे, वो शीत ना मिलना मुझसे। जो टिस जगाये मन में, जो दर्द भर जाये तन में। वो रीत ना मिलना मुझसे, वो मीत ना मिलना मुझसे। जो रात जगाये वर्ण से, जो नींद भगाये नैन से। वो जीद ना मिलना मुझसे, वो हठ ना करना मुझसे। जो छल कर जाये पल में, जो भ्रम भर जाये जीवन में। वो हल ना मिलना मुझसे. वो पल ना मिलना मुझसे। जो प्रश्न भर जाये मन में, जो जीवन तर जाये क्षण में। वो जीत ना मिलना मुझसे, वो खुशी ना मिलना मुझसे। जो सुकून ना भर पाये तन में, जो दिल ना भर पाये मन में।। -कवितारानी।

अश्रुओं की धार / ashru ki dhar

  अश्रुओं की धार दो धार छलकते पैमानें से, अटके हुए मेरे मयखाने से। आ जाती थी रुक-रुक के फुहार, मेरे नयनों की अश्रुओं की धार।।   पथ उनके टेङे मेङे थे। वक्त से रहते बङे बेङे थे। बेवक्त कर जाती थी प्रहार। मेरे नयनों की अश्रुओं की धार।। मैल मन का गहरे तल से। अधुरे रहे अरमानों के छल से। छुट चुकी है मन की जो बहार। ले आती है अश्रुओं की धार।। गंगा जमुना सी पवित्रता से, मन की शांत सुनेपन से। करती रहती आवाज हर बार। जब आती है अश्रुओं की धार।। पैमाने ये खाली ना होते। बिन मतलब कल को रोते। बने रहते निरंतर निर्झर अपार। मैंरे नयनों के अश्रुओं की धार।। आ जाते हैं बह जाते हैं रह जाते हैं। पलकों पर सिंचते गालों को मन पर करके वार। भर देते मेरे मन के हर द्वार। मेरे अश्रुओं की धार, मेरे अश्रुओं की धार।। -कवितारानी।

दो गज जमीन / do gaj jameen

दो गज जमीन दो वक्त का खाना हुआ,  सोना हुआ छठवे पहर को। लगा रहता अपनी धुन मैं, हरना हुआ जो अपने खुद को। कहता किससे दो पग नाप ली मैंने। पैरों तले थी जो दो गज जमीन। मेरी नहीं ना तेरी थी। खुनी हुई जो पहरी थी। किसी का कोई साथी ना था। मेरे पास कोई मेरा ना था। तब भी अकेली कुटिया थी। वो मेरे पैरों तले। दो गज जमीन ही थी। आज भी आगे बढ़ता हूँ। रहता हूँ खुद का खुद में मैं। सुनता हूँ सबकी बातें। कहता हूँ अपनी मैं। रहने को रोटी कपङा हो। मकान के लिए खुद हो। दो गज जमीन।। -कवितारानी।

शीत वही / sheet vahi

शीत वही लगता है हवा मैं नमी है। एक शीत चुभन भरी कुछ गमी है। लगता है शामें कुछ खफा है। लगती ना मन पर, हवा रुसवा है।। बढ़ भी रहा है अँधेरा देखो। शीत की चुभन भी बढ़ रही है। आराम की आस बस। एक पल का सुकून नहीं।। बढ़ रहा दुख का सागर। तल कही दिखता नहीं। छोर की तलाश जारी। अँधेरे में हवा फिर डरा रही।। सोच सकते हो कितना दुर्गम है। मेरा पथ कितना पथरीला है। आस का भी रहा दामन नहीं। सांसे भी अब जमने लगी।। लगता है दम निकलने को है। जैसे साँसे थमने को है। कुछ पल फिर याद में बीते। समय निकल गया तब अहसास ही।। लगता है कट कई राह भी। रहा नहीं कुछ सहने को भी। आगे बढ़ु कैसे शीत घनी अँधेरा वही। लगता है थमी नहीं जीवन की विकट घङी।। -कवितारानी।

एकान्त वर दो / Akant var do

एकान्त वर दो वो जो पाप जग में भरते हैं। जीने नहीं देते, ना मरनें देते हैं। करते हैं जान बुझ कर शेतानियाँ। ऐ मेरे रब सिखा दे उन्हें कारस्तानियाँ।। खुद की किमत कोढ़ी की नहीं है। जग को जो बेमोल दिखाते है। मन से मैले पापी जन ये।   खुद जीने ना जीने देते हैं।। अस्त्र उठाके अपना काम कर दो। लीला इनकी तुम हर ही लो। अधिकार नहीं जीना का इनको। अनाधिकार कर प्राण हर लो।। मैं एक राही सपनों का पहरेदार था। चल रहा अनजान लालायित था। सच्चा मन का साथ चाहा। लुट गया अंतिम क्षण तक गिङगिङाया।। उसको भी गिङगिङाने दो। बदला मांगू तो सजा दो। न्याय संगत बात है आई। मुझे अपने पर तरस है आई।। मन की मेरे थोङी सुन लो। सुकून मिले आत्मा को कुछ कह दो। मन का मेरे बोझ बढ़ रहा। सोंच सकुं कुछ ऐसे कर दो, वर दो, वर दो।। -कवितारानी।

मन का मैल / man ka mail

  मन का मैल मिट्टी का हूँ पिघल जाता। कोई प्यार से बोले हॅस जाता। फर्क ना पङता मन का अब। मन का रहा ना ये मनका अब।। छोर दुर अब साँसे अधूरी। बेठोर जिन्दगी तन की पहरी। रुक-रुक कर आती जाती। दिल को भरकर बह भी जाती।। खैल-खैल में याद आया। समय बिताया खोई काया। मन मांजी मांझ गया जब। अब चुभती रोशनी आवरण नहीं  अब।। बेपरदा मन बैसाखी खोजे। आस लगी है जिने की जो। लुट तो गया कण-कण से वो। टुट रहा पल-पल बैरागी जो।। कौन घङी कौन काम आया। खोज रही निर्मोही बन काया। डर लगता कोई शिकार ना होवे। ये मनका किसी का बैरी ना होवे।। सब ओर से आहट आती। बैरी जग मे बहुत से भरते छाती। अब किसको मन की सुनाये। एकांत बैठ लिखते जाये।। -कवितारानी।

अबके मुझे नजर ना आना / abke mujhe najar na aana

  अबके मुझे नजर ना आना कल शाम की बात है। घोर भीङ मे था उजाला। देख ना पाया एक पल को। चुभता रहा घोर सारा। मेरी ना किरण आयी। बनने ना दी मैंने परछाई। दूर तक मन घबराया। संक्रमण से बच ना पाया। काली अँधियारी रात थी। बैठ अकेला बहुत पछताया। क्यों गया उस भीङ भरी में। मिल ही जब उससे वैसा ना पाया। रुकना था कुछ ओर देर ही। लङ जाता उस रोशनी से ही। चुर-चुर तु अब होता है। टुटता है और बिखरता है। क्यों उसको तुने ना समझाया। मिट्टी है घोर काली तु। गंदगी में सङी सी है नाली तू। तेरी दुर्गंद ने दम घोट दिया है। ऊपर तुने लेप किया है। जग को दुषित कर रही है। कल शाम से व्यथित कर गई है। अबके मेरे आस पास ना आना। अबके मुझे कुछ ना समझाना। -कवितारानी।

काश कभी / kash kabhi

  काश कभी वो सुने लम्हे टिस ना देते। अकेले में आँखे नम ना होती। कभी आधे-अधुरे ख्वाब ना होते। काश कभी घात ना होती।। विश्वास अमर बना वो रहता। मन की करते मन की ही होती। सबके कहने सच ना होते। काश कभी कोई ना रोते।। खुशियाँ लम्हे हर बार होती। बैठे बिठाये तन की साँस होती। सुकून चैन हर दम भरते। काश कभी आहे ना भरते।। निर्मोही कुछ दुखियारे मिले। अपने मन की करने वाले मिले। था ही लेकर कुछ सपने चले। थे जो सपने काश पुरे होते।। टुटे सपने टिस ना देते। आधे जिये वो ना रिझते। सपने का साकार होना था। काश कभी मन ना रोना था।। काश कभी मैं ना होता। सपने ना जीता ना ठोकर खाता। ना कोशिशें हजार होती। काश कभी अँखियाँ ना बहती।। -कवितारानी।

दीपावली की शुभकामनायें / deepawali ki shubhkamanayen

दीपावली की शुभकामनायें दीप दान का उत्सव आया, हर्षोल्लास जगाने को, घर-घर रोशन हुआ, नववर्ष बुलाने को। खुशी के पर्व को सब एक साथ बैठ मनायें, मन से बात कहूँ, दीपावली की शुभकामनायें। पाँच दिन, पाँच रंग खुशियाँ लेकर आये। हर दिन यादगार बने और स्मृति पटल पर छाये। धन तेरस को धनवैभव दोनों हाथ कुबैर लुटाये। रुप चवदस को आपका घर आँगन आप बिखर जाये। लक्ष्मी पुजन को हर छोर रोशन कर दीप जलाये। गोवर्धन पुजन कर शांत मन पवित्र पङवा मनायें। भाई दूज का अतुलनीय प्रेम जीवन नभ पर छाये। पाँच दिनों के उत्साह संग खुशियाँ महकती जाये। रोग मिटे, दोष मिटे, क्लेष शांत हो जाये। रोग मिटे, दोष मिटे, क्लेष, द्वेष शांत हो जाये। स्वच्छ निर्मल काया से उल्लास का त्योहार मनायें। मौज करना, मस्ती करना कुछ मेरा मनन हो जाये। अपनी खुशी में प्रकृति को नुकसान ना पहूँचाये। देश हित मे दीप भले, एल ई डी रास ना आये। मौज में मस्ती भली, प्रकृति को ना सताये। रंग रहे मौज का हरपल बिते गीत सा। दीपावली की शुभकामनायें।। -कवितारानी।

बचपन की यादें / bachapan ki yadein / Part-1

 मेरे मित्र के साथ बचपन की यादें part-1 कुछ यादें सजायी है मैंने,  कई पलों को संजोया है। अपनी यारी पे बीते दिनों को, इन पन्नों पर उकेरा है। रुठना मनाना कम रहा, बातों का कारवां चलता रहा। चलते-चलते यहाँ तक आ गये, तुम नये दोस्तों से मिल गये। कितना कुछ जी लिया हमनें, साथ रहकर क्या कुछ ना किया हमनें। इन्हीं कुछ पलों को याद दिलाता हूँ, चलो में तुम्हें अपने बचपन की सेर कराता हूँ। कितने मासुम थे हम, दुनिया से अनजान खुद में मस्त थे हम। दोस्ती यारी सब से थी अपनी, बात निराली थी अपनी। जब कभी गाँव की गलियों में आये तुम, मिलकर पहले मुझे मित्र कहलाये तुम। ले चलते थे हम सब को नये माहौल में, खुब रंग घोलते थे हम अपने माहौल में। कितनी कच्ची केरियों का कत्ल हुआ, पत्थरों ने अपने कितने पेङो को जख्म दिया। याद है हमनें चोरियाँ बहुत की, कभी कंद, गन्ने की तो पपीता की चोरी की। पकङे जाते तो छोङ दिये गये हमेशा, कितने अच्छे चोर हुआ करते थे हमेशा। वो बेवजह खेतों खलिहानों की हमनें सेर की, मधुमख्खियों को दंश खाये पर शहद की मौज की। क्या खुब दिन थे वो, कितने अच्छे दिन थे वो। ना कल की फिक्र हुआ करती थी, ना कल की...

uncouncious run

  Get up daily, Tension about hair curly, Have warn milk and night's almond, Read a book for hour. They play with ground. Wash first room, then clothes, then me. Cook and feel songs to be gee, Make hast to go on job, Clean up bike and feel as I am on. All rush forgets and puts on smile on face, Some arrogant and proudly have to face. Work starts on call and phone. Study in alone, Cause haven't topic to talk and to pass the time. Scarcity of time and read fast, Soon 4:00 PM has come and gone home. Again, try to heal heart loneliness. Pray, write, sometimes cry. Accept some fraud as good one. Read and see the line class or film, as heart demands.  Result waiting for new place and past, practice to be official and powerful and happy, And go in dream and dream, with sleepless night. See how I fight in routine daily. -kavitarani1

पन्ने भरते गये / panne bharte gye

  पन्ने भरते गये ना कल कोई समझा, ना आज कोई समझता है। भावनाओं के ज्वार को, रवि अकेला तपता है। अंतर-अंतर का, लिखा भाग का जीता रहता है। मेरा एकांत डायरी में, मेरे मन का बोझ लिखा करता है। जानता है बावरा है ये सब यूँ ही है। पर कहे किसे, समझे कैसे ये दर्द ही कुछ ऐसा है। दर्द का पारखी ढुँढते-ढुँढते बोखला अब गये। लिखते-लिखते कितनी डायरियों के पन्ने भरते गये। सार कोई समझे, की शब्द कोई समझेगा। आकांक्षाओं के बादलों पर मन कब तक विचरेगा। आशाओं के धरातल पर तन-धन का बोल बाला है। आज भी जग में सब सुनाना और अपना ही बस गाना है। राग कोई चुना नहीं ना राह बदल पाया है। एकान्त में बैठे रवि ने बस अपना दुखङा सुनाया है। लिखते-लिखते समय साथ साल गुजर गये। कई डायरियों में मन को भरते पन्ने भरते गये। पङा नहीं लिखा जो बस पलट कर देखा जब। लग रहा जीया नहीं जब लिखा होगा ये सब। कितना अधुरा कितना एकान्त रहा मेरा कल। आज देख भरे पन्नों को भर आया मन। मन के बोझ कई है चाह कई। हर दिन नये सपने इसके हैं इसकी चाह नई। अपनी ही चाह को पाने के लिये समय से लङते गये। कहाँ कहे गम क्या, तो लिखा, और पन्नें भरते गये। क्या था कल और क्या बि...

मेरा सफर / mera safar

  मेरा सफर उठते-बढ़ते, हॅसते-रोते, मिलते-बिछुङते, हम पार आ गये। बदलते जमानें और चेहरों में भी हम खास हो गये। कौन याद रखेगा कि मैं जीया हूँ मर-मर कर। किसे फर्क पङेगा मैंने लिखा है जी-जी कर। सब किस्से यूँ दफ्न हो जायेंगे।। कहानियाँ कई पङी है, फिल्में कई देखी है, सबक बहुत सिखा है। नादानियाँ बहुत की है, परेशानियाँ बहुत देखी है, जीया हुँ मुश्किलों को। कौन ये सब किसी से कहेगा। किसे फर्क पङेगा। एक अनजान सफर शुरु हुआ था। एक जान पहचान बनाकर खत्म होगा। गये हैं कई आकर दुनिया में। मेरा नाम भी यूँ गुँजेगा।। काटी आधी, आधी और काटेंगे, जैसे भी हो जिंदगी काटेंगे। करेंगे जो कर सके वो बेहतरीन, कि अनुवाद में बटेंगे। कोई तो ध्यान देगा। किसी से तो भाग जुङेगा। कोई तो साथ होगा। या ये सफर यूँ ही मिटेगा।। आशायें आई गई, अपेक्षायें यूँ ही रही, बस यूँ रहा सफर मेरा। पन्नों में बंटता रहा विचार, कौन समझा, कौन समझेगा दर्द मेरा। वो सफर हसीन होगा। वो नींद पुरी होगी। जब जिन्दगी रुकी होगी। और अंतिम मेजिल मेरी होगी।। -कवितारानी।