Kya sikhau | क्या सिखाऊँ
क्या सिखाऊं ? मैंने गुरू द्रोण और शुक्राचार्य सा भी बनना चाहा । चाहा भला मैंने अपने शिष्य का हर दम । हर दिन हर पहर खुद को खोया पाया । पाया नित पाठ सिखाये, कैसे-कैसे दे विद्या और ज्ञान इन्हें ।। मैंने खोजा कहीं कर्ण सा शिष्य पाऊँ । या पाऊँ अर्जुन सा और धन्य हो जाऊँ । या मिल जाये अनुकरण करने वाला साधारण कोई । मिला ना जिसे बना सकूं महान मैं ।। जो गुरू अवहेलना भर बैठे, और पिता के पैसों पर ऐंठे । जो अपने मत को महत्व देते, और ज्ञान को क्षीण कहते । कैसे ऐसे शिष्यों को प्रेरणा पाठ पढ़ाऊँ । मैं सोंचू हर पल कि मैं शिष्यों को क्या सिखाऊँ ।। क्या सिखाऊँ इन्हें जो बात मेरी काट देते । और एक कक्षा पढ़े नहीं की ज्ञान का बखान गढ़ देते । हवाओं में महल सजाते, अपनी धुन के दीवानों को । मैं अधीर गुरु होकर क्या सिखाऊँ इन मतवालों को ।। लिखा भाग्य पनपेगा और बनेंगे ये अपनी किस्मत से । जो बनना है बनेंगे, पढ़ेंगे ये बस अपनी धुन में । मैं अपना काम, काम तक करता जाऊँ । जो है बन चुके सारे अपने भाग्य के इन्हें मैं और क्या सिखाऊँ ।। - कवितारानी।