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गुजारिश है | Gujarish hai

गुज़ारिश है  कुछ बारिश की बूँदें छु ली मैंने । खयालों की बारिश जी ली मैंने । वो मुलाकातें अधुरी भले है । सपनों की सेज पर गुजारिश ये है ।। तु मिले मुझको जब भी जहाँ भी । हॅस के जी ले जो हो बारिश । छु ले मन को तेरी आहट । जैसे है तन पर बारिश की राहत ।। ये सावन तो नहीं है । ये बारिश सही है । ये सपने वही है । और मैं कहीं जी रहा हूँ ।। आज भी तु मुझमें छुपी है कही तो । तेरी चाहत रहती मुझमें कहीं तो । बारिश-ठण्ड कसती आती रहती । तेरी झलक मुझसे मिलती रहती ।। कहीं तो बुँदे मुझमें समायी । मध्यम सी आहट तेरी भायी । बिन मौसम छाये बादल मुझपे । तु कहीं से आ ही गयी गयी है ।। जैसे भीगा है कागज बुँदो से आज । जग रही है वैसे मिलन की आस ।  रास आ रहा है यूँ भीगना भी मुझे । गुजारिश तु आ जाने कहीं से ।। गुजारिश है ये तु आ जाये कहीं से । गुजारिश है ये बारिश बीगा दे फिर से ।। Kavitarani1  203

कब आओगी | kab aaogi

कब आओगी  एक उम्र बित गयी इंतजार में जीवन सा बित गया ख्वाब में । एक उम्र उम्मीद रह गयी है, एक तुम रह गयी हो ।। तुम कहाँ रह गई हो, आखिर तुम कहाँ रह गई हो ।। कई महीनों बाद एक सपना आया, ये सुबह का सपना बहुत भाया, जैसे खुशियों की बहार आ गयी हो, वैसे तुम आ गई हो ।। हम साथ चल रहे थे, बहुत पास लग रहे थे, एक पल को ना मैंने तुम्हे छोड़ा, ना एक पल को तुम दूर लगी, कितना प्यारा वो लम्हा था, कितना मनमोसक वो सपना था, कितनी प्यारी तुम थी, कितनी प्यारी जिन्दगी थी ।। क्यूँ नींद खुल गयी थी मेरी, हाय ! क्यूँ तुम औझल हो गयी थी, कैसे रोकता खुद को मैं,  बस जी रहा था लम्हा मैं  ।। एक जिन्दगी जीनी है वैसी ही, एक उम्मीद लिखी है उसी की, एक चाहत है तुम्हारी ही, एक आस है तुम्हारी ही ।। तुम कब आओगी, कब साथ रहोगी, बस यही आस लगी है, तुम से मेरी जिन्दगी है ।। Kavitarani1  199

अचरज है!, Acharaj hai

अचरज है! मैं अक्सर बगीया में टहलता हूँ । वहाँ फुल-पत्तियाँ बहुत भाती है । कुछ पौधे हॅसके मिलते है । कुछ शाखायें फल देती है । अमूक सब बड़े उदार है । बगीया मानवता के लिये वरदान है । पेड़-पौधे-टहनियाँ-पत्ते रहते रोज एक से । हवा, हरियाली, फल, आनंद देते ये सहज ही । अहम नहीं दिखता क्षण भर भी । इनको भी है मिटना ही ।। पर जब देखता नव फूलों को । सुबह सुंगधित, दुपहर गर्वीत और मुर्झित होते शाम को । अहम् में ऊँचे उठे होते क्यों  ? आकर्षित करते अपने दिखावे से । लेना चाहे तो देते कांटे क्यों  ? खिंचते अपनी महक से ये । लेना चाहे महक साथ बिगड़ जाते क्यों  ? एक दिन का जीवन होता । फिर रखते इतना अहम् क्यों  ? देख बगीया के पत्तो-शाखाओं-फुलों को । अचरज है, भिन्नता रखते क्यों  ? मैं अक्सर जाता अब बगीया में । फल चुनता,डाली झूलता,पत्तों से खेलता हूँ । सुगंध फूलों की लेता हूँ, जो है नहीं उनके वश में यों । हैं अजरज अब फूलों को । देख रोज के खैल को, अचरज है जीवन को ।। Kavitarani1  195