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Kya sikhau | क्या सिखाऊँ

  क्या सिखाऊं ? मैंने गुरू द्रोण और शुक्राचार्य सा भी बनना चाहा । चाहा भला मैंने अपने शिष्य का हर दम । हर दिन हर पहर खुद को खोया पाया । पाया नित पाठ सिखाये, कैसे-कैसे दे विद्या और ज्ञान इन्हें ।। मैंने खोजा कहीं कर्ण सा शिष्य पाऊँ । या पाऊँ अर्जुन सा और धन्य हो जाऊँ । या मिल जाये अनुकरण करने वाला साधारण कोई । मिला ना जिसे बना सकूं महान मैं ।। जो गुरू अवहेलना भर बैठे, और पिता के पैसों पर ऐंठे । जो अपने मत को महत्व देते, और ज्ञान को क्षीण कहते । कैसे ऐसे शिष्यों को प्रेरणा पाठ पढ़ाऊँ । मैं सोंचू हर पल कि मैं शिष्यों को क्या सिखाऊँ ।। क्या सिखाऊँ इन्हें जो बात मेरी काट देते । और एक कक्षा पढ़े नहीं की ज्ञान का बखान गढ़ देते । हवाओं में महल सजाते, अपनी धुन के दीवानों को । मैं अधीर गुरु होकर क्या सिखाऊँ इन मतवालों को ।। लिखा भाग्य पनपेगा और बनेंगे ये अपनी किस्मत से । जो बनना है बनेंगे, पढ़ेंगे ये बस अपनी धुन में । मैं अपना काम, काम तक करता जाऊँ । जो है बन चुके सारे अपने भाग्य के इन्हें मैं और क्या सिखाऊँ ।। - कवितारानी।

परपीङन सुखी | parpidan sukhi

परपीङन सुखी- विडिओ यहाँ देखे परपीङन सुखी मैं फुल खोजता फिरता हूँ, और कांटे आ जाते हैं । कदम रखता सुखी जमीन पर जो, पैर दलदल में गढ़ जाते है ।।  जो सोंचू हसीन वादियों की, मैं रेगिस्तान पाता हूँ । जो चाहूँ अच्छे लोग तो, परपीङन सुखी पाता हूँ ।। पर पीङा में सुख खोजते, ये परपीङन लगते मतवाले से । कलयुग की ही सोचूं तो, ये सही समय वाले ।। मैं एक बार को झांसे में आता, दुजी बार दुख पाता हूँ । जब कहूँ प्रतिउत्तर में, तो इन्हें दुखी कर जाता हूँ ।। कोई गीरा जमीन पर, बहा लहू देख हँसते हैं । गिरने के तर्क अजीब, कुतर्क से अङते हैं ।। सोंचते नहीं कोई पीङा में हैं, कोई घायल पङा पास है । कोई उलझे ना जो इनसे, हँसते अपने आप उल्लास से ।। कोई आनन्दित दिख जाता तो दुखी हो ये जाते हैं । अपने आप को संभाल ना पाते, बोखला और जाते हैं ।। मजाक बनाते और झगङते, तंग भी करने से बाज ना आते । एक समय बाद जब उसे दुखी देखते खुश हो जाते हैं ।। कैसे ऐसे लोग धरती पर फल फुल जाते हैं । दुखी ही रहते हमेशा बस हँसते दिखाते है ।। ना खुश रहते अन्तर्मन से ना दुसरों को रहने देते हैं । ये परपीङन सुखी लोग नर्क के ही वासी लगते हैं ।। -कव...

व्यथा मेरी | vyatha meri

व्यथा मेरी  मैं निज में सिमटा आज, राज मन के कहता हूँ । व्यथा से भरा पङा मैं, व्यथित व्यथा अपनी कहता हूँ ।। शिक्षक बन शिक्षा का सार जाना । शिक्षार्थि को अपना आधार माना । जीव जगत के सारे भेद खोले । ज्ञान सागर उलेङ अनमोल शब्द बोले । क्या-क्या ना संभाल बस शिक्षा दी । खुद की भी भूल बस शिक्षा दी । और बदले में, और बदले में, नाम कई पाये हैं । एक दिन के सम्मान को नजर झुकायें हैं । वो शिक्षक दिवस भी अब अधूरा रहा । जब विद्यार्थियों की नजरों में मान ना रहा ।। कोई कहेगा की सिखाने वाले ने ना सिखाया होगा । कक्षा में बैठ मोबाइल चलाया होगा । क्या-क्या ना अफवाहें इल्ज़ाम बनी होगी । जब किसी शिक्षक ने अपनी व्यथा कही होगी । मैं सबकी अपनी कहता हूँ । मैं व्यथित अपनी व्यथा कहता हूँ ।। मैंने पाया है मेरे कुछ शिष्य नीर हीन है, नजरों में उनके हम क्षीण हैं । कुछ नहीं दे पाया मैं भी उनको,  क्योंकि जङ में ही उनके कहीं कमी है । जो भूला हो उसे याद कराया जाता है, मंद बुद्धि हो उसे प्रखर किया जाता है । पर बुद्धि हीन हो उसे क्या कहा जाता है, जो निर्लज हो उसे क्या ही सिखाया जाता है । जो बन चुका जङ बुद्धि, जो बुद...

छत गिरी की ईमान | Chhat giri ki Iman

छत गिरी की ईमान दब गई सांसे, भविष्य की उम्मीदें और देश का मान । रह गई बाकि सुखी रातें, मां की खाली झोली और मन के अरमान ।। गिरी छत अबोधों पर, कमजोर थे उन कंधों पर । जो लेने आये थे ज्ञान का भंडार, वो हार गये जीवन से आज ।। रह गये सवाल ही सवाल, अनसुलझे थे, अनसुलझे है ये सवाल । प्रश्न हर साफ मन करता है, कोई इनके भी जवाब बताओ आज ।। सुना है छत गिरी है, सुना है दीवार गिरी है । सुना बहुत कुछ है पर क्या सच में बस छत गिरी है? बहुत कुछ जानते है लोग जग में वो बोल रहे भर भरकर ज्ञान । बोल रहे लोग ईमान गिर गया है, बोल रहे लोग ईमानदारी का मोल गिरा है ।। भाव किया होगा किसी ने, इस भवन का भी कभी । और पढ़ा होगा, सुना होगा दीवारों से आती आवाज ।। देखा होगा कभी तो किसी ने भी, इन दीवारों की सीलन और दरार । आज जब गीर गई छत और दीवार, बताओ ; छत गिरी है कि ईमान ? - kavitarani1  Om shanti 

पंक्तियाँ | panktiyan

  पंक्तियाँ जल जीवन है, जल है जहान सारा, प्रकृति के पंखो में सिमटा, ये जहान सारा । वृक्ष है जीवन के आधार,  वर्षा है जल का आधार,  हम है प्रकृति के रखवाले, हम से है प्रकृति के बोल सारे । संगीनी जीवन सार है, मित्र-संबंधी और प्यार है । वक्त आने के इंतजार में, मेरा जीवन बीत गया । आज भी ना इंतजार खत्म हुआ, ना मेरा वक्त आया ।। फिर कभी कोई ज्ञान दे, और कहे ये मेरे अनुभव है, तो सुनने का मन ना हो भले, पर उसका सुनाने का मन देख लेना । यूँ कोई नहीं बताता अपने जख्म किसी को, कुछ तो खाशियत दिखी होगी उन्हें मुझसें । मैं सुनता हूँ लोग सुनाये जाते है, बित कहे भी बताये जाते है । पर फिर कभी जो मैं पूँछू हाल तो, जाने क्यों मुझही से छुपाये जाते है ।। - कवितारानी।

निस्स्वार्थ प्रेम | Niswarth perm

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  निस्स्वार्थ प्रेम वो बचपन के दुश्मन अजीब, रोते विरह में बिलख- बिलख । जो छोङ ना पाते थे दुध आधा इंच, छोङ देते जवानी में सारी जमीन । वो खाते मार रोज माँ-बाप से, मर मिटते एक दुसरे की रक्षा खातिर । वो जो निस्स्वार्थ प्रेम है, वो प्रेम भाई-बहन का प्रेम है ।। भाई पूजे जवाई, जीजाजी के पैर धुलाये, बहिन भाभी को अपनी माँ सा सराहे । वो जो एक दुसरे से लङते थे रोज, अपने पुराने दिन बुलाये । वो जो दुसरे से जलते थे रोज, अपने पुराने दिन याद करे, बिलखाये । ये जो निस्स्वार्थ प्रेम है, ये भाई-बहन का प्रेम है ।। अपना सब त्याग बहिन प्रेम मांगे, रक्षाबंधन पर बस चाहे राखी बांधे । दूर पङा भाई अपनी बहिन बुलाये, राखी बंधा हाथ में, रक्षा वचन दोहराये । मिठाई खिलाते आपस में, मन में प्रेम रस घुल जाये । ये देख रवि चमक बढ़ जाये, ये निस्स्वार्थ प्रेम है, ये भाई बहिन का प्रेम है ।। -कवितारानी।

Rakhi | राखी

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राखी  कोई धागा कहे प्रेम का, कोई रक्षासूत्र पुकारे । भिन्न-भिन्न नाम से, भाई-बहन दुलारे ।। सावन की पूनम पुकारे । राखी है प्यारे ।। है देश अपना त्योहारों का, दीपों का ये रंगो का । कभी छतों पर पतंग उङाले, कभी आराम से बैठ राखी बंधा ले । सावन की हरियाली पुकारे । राखी मनाले ।। आ बैठ पास बहिन के, बुआ का आशीर्वाद ले ले । रक्षा का बंध बंधा कर, कुछ हित वचन ले ले । सावन का महिना पुकारे । रक्षाबंधन मना ले ।। है कोई टिस मन में, या रिस भरी है तन में । बचपन को थोङा निहार ले, शांत बैठ अपना प्रेम बङा ले । इस साल का जाता सावन पुकारे । राखी मना ले ।। आ भाई पास बैठ, हाथ बङा, तिलक लगा ले । कुछ मीठा लाई बहिन, आज रिश्तों में रस मिला ले । सावन है महादेव का आशीर्वाद ले ले । आ राखी मना ले ।। बदले में उपहार जरूर देना, भाई है रक्षा का वचन जरूर देना । कुछ ना दे धन में भले, मन से भाई प्रेम जरूर देना । ये जीवन अनमोल है, एक-एक दिन सजा ले । बंधा कलाई में राखी इसे सजा ले । रक्षाबंधन है प्यारे, आ राखी बंधा ले ।। - कवितारानी।

आओ प्रकृति से बात करें | Aao prakriti se baat karen

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  आओ प्रकृति से बात करें दौङ भाग भरी जिन्दगी में, कुछ पल साथ चलें । अपनी और अपनों की छोङ; चलो आओ प्रकृति की बात करें । आओ प्रकृति की बात करें ।। एक दिन छुट्टी लेकर वृक्षारोपण सब करें । बहते दरिया को रोके हम, जल संरक्षण की बात करें । बहती जमीन को रोके हम, मिट्टी का समाधान करें । रोज सोंचते रहते हैं जो, आओ उसी की बात करें । आओ प्रकृति की बात करें । आओ प्रकृति का संरक्षण करें ।। हम पढ़े लिखे, ज्ञाता हम, प्रकृति का अभिन्न अंग हम । हमसे है जग जीवन, हम से बिगङ रहा है पर्यावरण ।। जीव- जगत की रक्षा की बात करें । कुछ समय ही सही, जागरूकता का आव्हान करें । हम सुरक्षित हैं आज भले । हम कल और कल की पीढ़ी की सुरक्षा की बात करें । आओ प्रकृति की बात करें ।। - Kavitarani1 

sab sukhad ho / सब सुखद हो

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सब सुखद हो  अनुभूति में रस, अनुभव में आनंद हो । मन में उमंग, जीवन में रंग हो । सब कुछ मनमोहक, और अपनी हद में हो । मेरा ही नहीं, सबका जीवन सुखद हो ।। मत भेद रहे, रहे ना मन भेद कहीं । तर्कशील रहे, रहे ना तर्क हीन कोई । सब ज्ञानवान हो, आनंदित, प्रफुल्लित हो । मेरा ही मत नहीं, सबका तर्क- सब सुखद हो ।। ऋत बदले, ना रीति बदले । रिवाज बदले, ना संस्कृति बदले । सब पुरातन, प्राकृतिक, जीव हित हो । हम ही नहीं, हमारा जहान भी सुखद हो ।। शिक्षा में सार, व्यवहार में शालीनता हो । बङो में प्रेम, छोटों में सम्मान हो । सब जैसे सतयुग सा हो, सब गौरवान्वित हो । हम ही नहीं, हमारा संसार सारा सुखद हो ।। आधुनिकता में विज्ञान, धरातल पर विनम्रता हो । जग में एक सार, जगत का उद्धार हो । सब ईश्वर को समर्पित और जीवन रसमय हो । मेरा ही नहीं, इस जग में सबका जीवन सुखद हो ।। - Kavitarani1 

तुम खयाल रखना अपना | Tum khayal rakhna apna

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तुम खयाल रखना अपना  कहने को लोग कई सारे अपने । पर कोई दिल के ज्यादा करीब नहीं । जितना सुनना चाहूँ तुम्हें, उतना किसी से सुनता नहीं । वैसे सब रखते खयाल अपना, पर तुमसे ये खास कहना है । साथ रहना हो ना भले, पर यादों में साथ रहता । तुम खयाल रखना अपना, मेरा तुमसा कोई नहीं ।। ना मिलना, ना दिखना कभी, पर मन में कहीं रिश्ता रखना अपना । ना बात कर पायें, ना मिल पाये कभी, पर यादों में बसाये रखना तुम । कोई रहे ना रहे आस-पास भी तुम्हारे,  तुम खयाल रखना अपना । तुम खयाल रखना अपना, तुम सा मेरा कोई नहीं । यादों में बसाये रखना सदा, और कहीं मुझे रहना नहीं । सपनों में साथ रखना मुझे, और के साथ मुझे रहना नहीं । तुम पास रहना मेरे, मुझे कुछ और कहना नहीं । तुम बहुत खास हो मेरे लिये, इतना कोई खास नहीं । तुम खयाल रखना अपना...।। Kavitarani1  227

क्या है ये | Kya hai ye

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क्या है ये  हाँ शुरूआत में सब अच्छा था । अजनबी से शुरू हुए और फिर तु मेरा बच्चा था । तब मैं थोड़ा कच्चा था-था जो भी पर सब अच्छा था । तु भी समझती थी बात मेरी-मेरी भी आदत ना थी, ना चेप तेरी । थोड़ा-थोड़ा मैंने शुरूआत की और तुने बात की । दात देनी पड़ेगी क्या शानदार शुरुआत थी ।। मेरा था अकेलापन-रखता था अपनापन । पर तुने थे खैल-खैले मेरे जैसे रखे थे जाने कितने चैले । छैले से हम बन छबीले, बातें करने लगे जैसे रहते साथ-साथ खैले । कुछ दिन-महीने हुए और बातों के भी बखैरे हुए । हुई बात-बात पर मुलाकात पर कभी साथ ना मिले । दुर से ही आँखों के तार मिले-मिले ना हम । मिले ना हम-ना सच वाली मुलाकात हुई । कहती रही तुम लड़की हो, पर लड़की जैसी कोई बात ना हुई । हाँ यहाँ से सब बदला हुआ, जिद बड़ी मिलने की, और तुम थी अड़ी-अड़ी से फिर पड़ी पर हुई । बातें आगे बढ़ी और-और जिद बड़ी । क्या है ये, कैसे समझाऊँ । अपनी बात को कैसे मनाऊँ । कैसे समझाऊँ, क्या है ये ।। Kavitarani1  22 6

समझ जा | Samajh jaa

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समझ जा  ना कह कुछ-कुछ ना समझ । अपनी बात को खुद समझ जा । मैं अपनी कहूँ या कहूँ किसी की । तेरी मेरी बनती नहीं कहीं भी । इसीलिए मेरी बात को समझ जा । तु अपनी राह ले मुझे छोड़ जा ।। हाँ माना आसान ना होगा । होगा जो वो अच्छा होगा ।  कुछ दिन-दिल ना लगेगा । तेरा पता नहीं पर मेरा मन ना लगेगा । भरेगा मन तेरा-आम होगी जब परेशानियाँ । कुछ भी हो पर है ये मेरी हानियाँ । तेरा तो था मौज-ओज और बढेगा । ये जग है पता चला दुखी हूँ मैं तो, फिर कुछ नया किस्सा गढ़ेगा ।। है ये जीवन-जीवन ही है ये । रूके रहे तो भी आगे बढ़ेगा ।  तू साथ रही तो ठीक है । तू साथ नहीं तो भी चलेगा । तो सोंच अपनी ही तू, तू बात ना कर बेरी कुछ । कुछ भी हो-हो कुछ बी बात । आरोप मुझ पर लगेगा । तुझे जाना है तो जा, बस अपनी बात को खुद समझ जा । अब ना कह कुछ-कुछ ना समझा । अपनी बात को खुद समझ जा ।। Kavitarani1  225

मैं राही बन चलता हूँ | Main Rahi Ban Chalta hun

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 मैं राही बन चलता हूँ  अपनी किस्मत का मैं मारा-मारा फिरता । मैं अभागा-भागा-भागा फिरता ।। रंग देखता अंगो के, फिरता सतरंग देखता । अपनी धुन का धुनी मैं, खुले मन चलता-फिरता ।। है नील कण्ठ मुकुट ताज, मन पर करता वो राज । नाच-नाच मोह से हरता, मोर बन मैं नृत्य करता ।। है हरा रंग- लाल ढाल, नकल करता मन हरता । सुआ सुदंर बात करता, मैंना के लिये भागा फिरता ।। एक पथिक जान, हो अनजान मंजिल की राह चलता । देख अथक परिश्रम को, मैं उसपे नाज करता ।। एक जीवन सुलभ दिखता, धोरी रेत पर ढाणी पर पलता । दुर-दुर तक आगे बढ़ता, हिम्मत की ये बात करता ।। सब अपनी जीवन गाथा-गाते, आते जाते दिखते-मिलते । मैं अभागा-भाग से मिलता, भूलता दुख आगे बढ़ता  ।। रूका ना आगे रूकता, थकता-सोंचता और आगे चलता । बन पथिक सिखता रहता, तलाश में जीवन कटता ।। है राह और राही सा मैं, परिश्रमी तन और हिम्मत है । बटोर साहस आगे बढ़ता हूँ मैं भूल कल-आज चलता हूँ  ।। Kavitarani1  224

मोर नाचता | Mor nachta

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मोर नाचता  अपनी धुन में-मैं रहता अपनी धुन में । राह चुनता चलता मैं अपने गुन में । कोई कहे ना कहे सुधारता रहता हूँ । मैं मोर नाचता देखता हूँ । और खुद को सवाँरता रहता हूँ ।। है मोरनी की तलाश में । थिरक रहा पैर वो । पंखो को फैलाकर । नाच रहा है वो । थकता नहीं घुम-घुमकर । जोश में नाचता झूम-झूमकर । जो दिखे मोरनी की झलक कहीं । रूकता नहीं एक पल को । मनमोहक-मनभावन नाच है । मोर को तलाश है । इसी तलाश को पुरा करने को । मोर नाचता अपनी धुन में ।। देख मोर की चाल । मैं बदला अपनी ताल । कोशिशों को प्राथमिकता देता । सवँरता खुद और तलाश करता । नाच ना आता नाचता हूँ । मैं भी मोर सा रहता हूँ । वहाँ मोर नाचता अपनी धुन में । यहाँ मैं नाचता  ।। Kavitarani1  223

कैसे | Kaise

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  कैसे  मैं खुद मैं सिमटा औरों की परवाह करूँ कैसे । रहता हूँ बैसुध, सुझ की बात करूँ कैसे । जाने कैसे कट रही जिन्दगी पता नहीं । मैं जिन्दगी जीने की बात करूँ कैसे ।। एक भौर का तारा देखता हूँ, साँझ को निहारता हूँ । मोर का नाच देखता हूँ, पपीहे को सुनता हूँ । मैं अपने दुख का मारा, और का दुख दूर करूँ कैसे । मैं अन्त दुखी के दुख से, रूकूँ कैसे ।। फिर तलाश नये आशियानें की, मैं खण्डहर में रहूँ कैसे । बना रहा अपना घोंसला, होंसले से दूर रहूँ कैसे । सिखा पाठ हिम्मत का, किमत अपनी कहूँ कैसे । मैं खुद ही टुटा हुआ, रूठा जग से रहूँ कैसे ।। एक नीम का पेड़ छाँया देता कड़वा रहूँ जैसे । दुसरे को छाँव देता अंदर से खोखला रहूँ जैसे । आते बैठते लोग गुणगान करते दुख उन्हें सुनाऊँ कैसे । मैं अकेला शांत रहता अन्दर की अशांति कहूँ कैसे ।। Kavitarani1  222

पिया बावरी | Piya bawari

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  पिया बावरी पिया बावरी मैं, पिया बावरी । सुध-बुध खोयी, रोयी साॅवरी मैं, रोयी बावरी । अखियन से बैर कर, जागी पूरी रैन मैं । मनवा से बैर कर, हुई बैचेन मैं । सो ना सकी, थकी रोई मैं । पिया बावरी मैं, पिया बावरी ।। छत पर बैठा पपिहा, बुलाये मुझे ही । छत पर बैठी, पथराई मैं भी । देख रही, भौर भरी अखियन से । भौर भयी, दिन चढ़ने लगा है । जागी अखियाँ कह रही है । पिया बावरी मैं, पिया बावरी ।। जाती सदायें, साल बिते । बैठ ठोर एक-एक यौवन बिते । बित गया सावन, शीत जलाये । ग्रीष्म चिढ़ाये, मन भर आये । आये यादें, यादें सताये । बोल मनवा, मन बोल । पिया बावरी मैं, पिया बावरी रे । पिया बावरी मैं  ।। Kavitarani1  218

इंतजार करते जिन्दगी हारी | Intjar karte zindagi hari

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इंतजार करते जिन्दगी हारी  कब आयेगी नींद प्यारी,  कब मिलेगी किस्मत प्यारी, सोंच रही जिन्दगी दुखियारी, इंतजार करती जिन्दगी हारी । साल बिता बिस्तर पर, हाल बेहाल, निडाल होकर के, सारी जिन्दगी हुई दुसरों की, कैसे कटे जिन्दगी न्यारी । बोल अब सुख गये, आँखे जैसे पथरा गई, पानी पर अटकी साँसे हैं, कहाँ अटकी जिन्दगी सारी । मौत से जैसे ठन गई, जिन्दगी की उससे लड़ाई हो गई, जान अनजान अब पड़ी है, इंतजार करती जिन्दगी हारी ।  कब आये लेने यम, रोज घुटता रहता दम, मन पर तन पर बोझ भारी, इंतजार करते जिन्दगी हारी । काया का साथ रिश्ते मिलते, माया का मोह लोग मिलते, मिलती नही मौत प्यारी, इंतजार करते जिन्दगी हारी ।। Kavitarani1  215

यादें पुरानी | Yadein purani

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यादें पुरानी  मेरे अस्कों के निशान बताते है, मेरे बहते नैंनो की धार कहती है, मेरा आज मेरे कल पर कर्ज है, मेरे बचपन में किस्से बहुत दर्ज है । भूली बिसरी तस्वीर तस्वीरों संग, पलटती निगाहें कहती है,  तिरछी बोंहे बताती है,  मेरा मोल नहीं था यादों में  । मेरे दुख भरे लम्हों के हिस्से कहते है,  अधुरे रहे लम्हों के हिस्से कहते है,  कई साल खो दिये यूँ ही मैंने,  अब वो लम्हें वापस याद आते है । सुखी दिल की बातें सारी, सुखी नयनों की धार है, मेरे खोये बचपन सा ही, मेरा यौवन खोया ही है । मेरे अश्कों से पत चलता है, मेरे दुख का सिला मिलता है, सच-झूठ दूर की बातें रह गयी, सारी बातें यूँ ही रह गई।  बितता आज - कल पर भारी, कभी-कभी ही याद आती, पर जो साथ रहती है, वो खुशनुमा है बातें सारी ।। Kavitarani1  210

बदलता समय | Badalata samay

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बदलता समय  शक्लें बदल जाती है एक समय बाद को, और लोग आइनें को दोष देते है । बोझ लिये चलते है लोग कई सारा अपने मन पर, और दुसरों की कमियाँ देखा करते हैं । एक प्रेम की प्यासी दुनिया सारी, और लोग दुसरों की खुशियों से जलते है ।। एक दिया जलता अंधेरा मिटाने को, और बेमतलब के पंतगे आ गये जलने को । रोशन हुआ जग भला ! जली दिया की बाती क्यों ! आरोप लगाया रोशनी वालों ने जला दीया तू क्यों ! कर भला की कहे-कहे जग बुरे बोल, अपनी धुन में जला दीया, जले इसमें जो ।। मन की आयी हर बात बदली, और लोग कसते ये बदला क्यों ! संवेगो के वेग बदलते रहते, और कहे जग ये बदला क्यों  ? समझाना चाहे जिसे जितना वो समझे ना, रहे जिसे जैसे, रहे मन पर बोझ क्यों ? Kavitarani1  209

मुझसे मेरी हालत बयां नहीं होती | mujhse meri halat bayan nahi hoti

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  मुझसे मेरी हालत बयां नहीं होती  घर-घर घुमता हूँ,  पर दहलीजें पार नहीं होती, मुझसे मेरी हालत बयां नहीं होती । अक्सर सुलभ हो जाता हूँ लोगो को, शायद यही बात हजम नहीं होती, मुझसे मेरी हालत बयां नहीं होती । पंरिदो सा उड़ता हूँ,  पंखो की मुझे जरूरत नहीं होती,  हवाओं से टकराता हूँ, मुझे दीवारों की कमी नहीं होती, कमियाँ मुझमें समाई हुई,  जमाने की कोई कमी नहीं होती,  कमजोर मन बैठा पाता हूँ खुद को मैं,  बस यही बात हज़म नहीं होती, समझाना चाहूँ हाल अपने, पर मुझसे मेरी हालत बंया नहीं होती । मन लगाने को हर मन तक जाता हूँ,  मन लग जाता है हर घर पर, पर मुझसे उनकी दहलीजें पार नहीं होती, रूक जाता हूँ वहीं सब मैं,  सोंचता हूँ, समय बितता हूँ,  और यह साल बदलता नहीं,  मुझसे मेरी हालत बंया नहीं होती ।। Kavitarani1  208

मैं चल रहा हूँ | Main chal rha hun

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चल रहा हूँ  बहुत बोझ लेकर चलता हूँ,  मैं बहुत संभल कर चलता हूँ । हो जाती है गलतियाँ मुझसे, मैं गलतियों से सिखता हूँ । हाँ पसंद नहीं आते लोग मुझे,  चिड़ता हूँ और गुस्सा करता हूँ,  पर क्या करूँ कुछ मजबुर हूँ,  मैं आखिर इनके बीच जीता हूँ । होती है हो जाये खफा दुनिया,  संभल रही नहीं मुझसे दुनिया,  कोशिश सबको मनाने की करता हूँ, मैं अपनी धुन में चलता हूँ । काम आते है कुछ लोग मेरे, कुछ लोग चिढ़ाते है मुझे,  समझ रहा हूँ और बढ़ रहा हूँ,  आज भी शांति की तलाश में हूँ । सुकून की तलाश में आशियाना बना रहा, कैसे-कैसे कर किये जा रहा, सोचता हूँ कुछ बदलेगा जीवन में मेरे, बदलने की चाह में बदला जा रहा । बहुत बातें आती है मन में,  हर बात की सोंच आज चल रहा हूँ । मैं वैसे तो रूका हूँ यहीं,  पर आगे बढने की कोशिश कर रहा हूँ  ।। Kavitarani1  307    

होने दो जो होता है | Ho jane do jo hota hai

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  होने दो जो होता है  बातें कई हो गई अब काम करना है,  कुछ दिन ही यहाँ रहना है और क्या करना है । कहते है तो कहने दो, अब लोगों को रहने दो । अपनी जिन्दगी का एक चेप्टर है ये चल रहा, जो कोई हो आस-पास अपनी ही कह रहा । जीवन के लम्हे बनने दो, जो बने बात बनने दो । जाने के बाद भी कुछ तो बातें चलेगी ही, यहीं अच्छा है अपनी मोजुदगी कहेगी ही । हमनें क्या किया यह हम जानते है, दुनिया में रहते है सब जानते है । जो हो रहा वैसे ही इसे अब कहने दो । लोगों का काम है कहना अब कहने दो । कुछ दिन और रहना है,  कुछ बातें रहने दो । भूलना आसान नहीं सब जानते हैं,  जो बूला सके उसे भूलने दो ।। Kavitarani1  206

एक मैं अकेला | Ek main akela

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एक मैं  अकेला  बादलों का काँरवाँ, जा रहा है कहीं । पक्षियों का समूह, गा रहा है कहीं । कहीं से आवाजें आ रही हवाओं की । और मैं बैठा अकेला सुन रहा अकेला ही ।। मैं सुन रहा हूँ गुजारिशें । बादलों से आ रही बारिश की बुँदे । पेड़ो से पत्तिय की आवाजें । गुनगुना रही पेड़ों की साखे । एक मैं अकेला बैठा हूँ,  सुन रहा हूँ मन के शौर को । आवाजें बाहर है, है अंदर बहुत । कहूँ किससे क्या है मुझसे दूर ।। देख रहा हूँ जाते बादल । आता सुरज, जाते बादल । दिख रहा पेड़ो की शाखों पर पक्षी, उड़ते पंतगे और हवायें । एक मैं बैठा अकेला देख रहा । गुजारिशे मन से खुद करता ।। बारिश की बूँदें हल्की हुई है । अब आवाजें पक्षियों की बढ़ सी गई है । हवा है नम और बादलों के झुंड । एक मैं अकेला बुन रहा गुन । एक मैं अकेला बैठा हूँ यहाँ ।। Kavitarani1  304

गुजारिश है | Gujarish hai

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गुज़ारिश है  कुछ बारिश की बूँदें छु ली मैंने । खयालों की बारिश जी ली मैंने । वो मुलाकातें अधुरी भले है । सपनों की सेज पर गुजारिश ये है ।। तु मिले मुझको जब भी जहाँ भी । हॅस के जी ले जो हो बारिश । छु ले मन को तेरी आहट । जैसे है तन पर बारिश की राहत ।। ये सावन तो नहीं है । ये बारिश सही है । ये सपने वही है । और मैं कहीं जी रहा हूँ ।। आज भी तु मुझमें छुपी है कही तो । तेरी चाहत रहती मुझमें कहीं तो । बारिश-ठण्ड कसती आती रहती । तेरी झलक मुझसे मिलती रहती ।। कहीं तो बुँदे मुझमें समायी । मध्यम सी आहट तेरी भायी । बिन मौसम छाये बादल मुझपे । तु कहीं से आ ही गयी गयी है ।। जैसे भीगा है कागज बुँदो से आज । जग रही है वैसे मिलन की आस ।  रास आ रहा है यूँ भीगना भी मुझे । गुजारिश तु आ जाने कहीं से ।। गुजारिश है ये तु आ जाये कहीं से । गुजारिश है ये बारिश बीगा दे फिर से ।। Kavitarani1  203

कब आओगी | kab aaogi

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कब आओगी  एक उम्र बित गयी इंतजार में जीवन सा बित गया ख्वाब में । एक उम्र उम्मीद रह गयी है, एक तुम रह गयी हो ।। तुम कहाँ रह गई हो, आखिर तुम कहाँ रह गई हो ।। कई महीनों बाद एक सपना आया, ये सुबह का सपना बहुत भाया, जैसे खुशियों की बहार आ गयी हो, वैसे तुम आ गई हो ।। हम साथ चल रहे थे, बहुत पास लग रहे थे, एक पल को ना मैंने तुम्हे छोड़ा, ना एक पल को तुम दूर लगी, कितना प्यारा वो लम्हा था, कितना मनमोसक वो सपना था, कितनी प्यारी तुम थी, कितनी प्यारी जिन्दगी थी ।। क्यूँ नींद खुल गयी थी मेरी, हाय ! क्यूँ तुम औझल हो गयी थी, कैसे रोकता खुद को मैं,  बस जी रहा था लम्हा मैं  ।। एक जिन्दगी जीनी है वैसी ही, एक उम्मीद लिखी है उसी की, एक चाहत है तुम्हारी ही, एक आस है तुम्हारी ही ।। तुम कब आओगी, कब साथ रहोगी, बस यही आस लगी है, तुम से मेरी जिन्दगी है ।। Kavitarani1  199

अचरज है!, Acharaj hai

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अचरज है! मैं अक्सर बगीया में टहलता हूँ । वहाँ फुल-पत्तियाँ बहुत भाती है । कुछ पौधे हॅसके मिलते है । कुछ शाखायें फल देती है । अमूक सब बड़े उदार है । बगीया मानवता के लिये वरदान है । पेड़-पौधे-टहनियाँ-पत्ते रहते रोज एक से । हवा, हरियाली, फल, आनंद देते ये सहज ही । अहम नहीं दिखता क्षण भर भी । इनको भी है मिटना ही ।। पर जब देखता नव फूलों को । सुबह सुंगधित, दुपहर गर्वीत और मुर्झित होते शाम को । अहम् में ऊँचे उठे होते क्यों  ? आकर्षित करते अपने दिखावे से । लेना चाहे तो देते कांटे क्यों  ? खिंचते अपनी महक से ये । लेना चाहे महक साथ बिगड़ जाते क्यों  ? एक दिन का जीवन होता । फिर रखते इतना अहम् क्यों  ? देख बगीया के पत्तो-शाखाओं-फुलों को । अचरज है, भिन्नता रखते क्यों  ? मैं अक्सर जाता अब बगीया में । फल चुनता,डाली झूलता,पत्तों से खेलता हूँ । सुगंध फूलों की लेता हूँ, जो है नहीं उनके वश में यों । हैं अजरज अब फूलों को । देख रोज के खैल को, अचरज है जीवन को ।। Kavitarani1  195