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शिक्षक आशीर्वाद रहे | shikshak aashirvad rhe

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शिक्षक आशीर्वाद रहे । शिक्षक दिवस है आया । खुशियाँ भर सम्मान है लाया । साल भर में ये एक दिन बनाया । मेरे शिक्षकों का बखान कराया । नित शीश नमन, आभार व्यक्त करुँ । करबद्ध नत मस्तक मैं याद करूँ । कृपा रही, शिक्षा दान रहा क्षमा का भाव रहा । वर्ष पर्यन्त जब आपका आशीर्वाद रहा । मैं नियमित हित जगत का पथिक बना । मर्यादित, आशावादी, साहस का साथी बना । प्रगति पथ पर मंजिल आसान रही । आपकी कृपा छांव में जो मेरी थान रही । मेरी नादानी और शैतानियों को आपने सहा । गलतियों पर मेरी आपकी विनम्रता का दान रहा । गान आपके आलौकिक भाव का करुँ । मैं आज नित शत्-शत् नमन करुँ । है उत्सव आज गान रहे । मेरे गुरुवरों क सम्मान रहे । कृपा आप पर ईश्वर की बनी रहे । मुझ पर मेरे गुरुवरों का आशीर्वाद रहे ।। -कवितारानी।  

हमारे मन में निवास करते हो | Hamare man mein nivas karte ho

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हमारे मन में निवास करते हो  घर परिवार से दूर रहते हो । अपनी पीङा और दर्द छुपाते हो । बन कर्मठ कर्तव्यनिष्ठ शिष्टता दिखाते हो । मधुर मुस्कान से मन पर छाते हो । कृतघ्नता से अपनी हमें  कृतज्ञ करते हो । ज्ञान सागर उङेल हम पर आह भी ना करते हो । ज्ञान प्रकाश फैलाकर अंधकार हरते हो । कोमल वाणी बोल मन हरते हो । हास्य कथा कह खुद ना हसते हो । अनुशासन का पाठ अनुशासित करते हो । प्रेम सौहार्द बता प्रेम सागर बनते हो । विशाल ह्रदय बता मन खाली रखते हो । दोष क्लेष दूर रख संयम सिखाते हो । आभा अपने व्यक्तित्व की लुटा दीपक बनते हो । पथिक हमारे बनके पथ भी बनाते हो । अपनी कमियाँ छुपा हमारी हरते हो । सर्वगुण सम्पन्न हमें गुणवान करते हो । शिक्षक, गुरु, अध्यापक रुप में आप आभार करते हो । जीवन सफर को स्पर्श कर यादगार बनते हो । आप हमारे मन में निवास करते हो ।। -कवितारानी। 

सवालों में क्यों | savalo mein kyon

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सवालों में क्यों ? सवालों के घेरों में, बैठे हैं वो ढेरों में।  अपनी माटी पाक साफ बताते, दुसरों पर लाछन लगाते।। क्यों ना कहे दोगले तुमको, जब खुलकर ना बोलने देते हमको। अपनी ही राग अलापते, बेचारे बन धाप डकारते।। सवाल तभी किया होता तुमने, जब-जब सवाल सबमें होता हममें।  तो ना आज नफरत से भरते, तुम भी भारत माँ की जय कहते ।। जब जीत रहा था भारत मेरा, तुम मायुस क्यों होते । जब हार रहा दुश्मन से, तो घर आंगन क्यों खिला होता ।। जब पत्थर फेंक सिपाही था घायल होता, तब भी रोना होता । जब दुश्मन बंद महीनों रखता, तब भी दम घूटा होता ।। खुलकर तारीफ़ कभी देश की हमेशा जो तु करता । तो आज सवालों के घेरे में ना आकर खङा होता ।। अब पूछ रहा हूँ तो ये भी बतलाओ तुम । धर्म के नाम पर दुसरों की धर्म प्रचार से क्यों चिढ़ जाते तुम ।। अपनी गिरबान में जो तू झाँक लेता । समय रहते अपनों में कमियाँ ढूँढ लेता तो ना ऐसा होता ।। जवाब देकर बचना आता है, सवाल पर सवाल करना आता है । पर कभी धर्म से बढ़कर देश कहा होता, तो सवालों के घेरा में ना होता ।। अब भी जिसकी खाओ खुलकर गाओ तुम, बस नफरत मिटाओ तुम । ये भारत देश तुमसे-मुझसे है,...

मुझे अपनी राह चलना है | Mujhe apni raah chalna hai

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मुझे अपनी राह चलना है  बहते दरिया को अपनी राह चुननी है । हो पत्थर, पर्वत, उसे अपने हिसाब से चलना है । मदमस्त मगन राही को अपने लक्ष्य चुनने हैं । मैं राही मतवाला, मुझे अपनी राह पर चलना है ।। कोई सुने मधुर कोयल को या करे अनदेखा इसे । गाना है पपीहे को, कोयल को क्या लेना दुनिया से । हो अपनी दुनिया अपने हिसाब की, अपना ही कर्म रहे । होता है जो हो जाये जग में मुझे अपनी राह पर चलना है ।। मधुर बोल मन भरे, या कङवे बोल चुभे मन में । मन का मजबूत राही, बिना रूके चले अपनी धुन में । सागर से भरे जग में अपना वजूद जो रखना है । अपने मन से बने राही को, अपनी राह चलना है ।। उङते बादल को अपनी जगह जाकर बरसना है । हो बाधाएं हजार जिसे बढ़ना है उसे बढ़ना है । अपनी मंजिल के मतवाले राही को भी यूँ बढ़ना है । मैं भी राही मतवाला, मुझे अपनी राह चलना है ।। - कवितारानी।

मुझे तुम बहुत भाती हो | mujhe tum bahut bhati ho

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मुझे तुम बहुत भाती हो  मेरी छोटी मोटी बातें सुन । मुझसे रोज जुङ जाती हो । अपने बचकाना अंदाज में । खिलती हो और मुस्काती हो । बहुत सारों को जानता हूँ मैं । पर तुम मुझे बहुत भाती हो ।। सच पर अङी रहती हो । मिठे बोल बोलती हो । परेशान रहूँ मैं जब भी । समाधान बन आती हो । एकान्त मुझे है भाता जैसे । वैसे तुम बहुत भाती हो ।। विश्वास बनाये रखती । कभी चिढ़ती चिढ़ाती हो । रिश्ता नहीं खुन का अपना । पर रिश्ता अटूट बनाती हो । कुछ ही लोग है खाश मेरे । तुम उनमें एक अनौखी बन जाती हो ।। भीङ बहुत है मेरी दुनिया में । पर मुझे तुम बहुत भाती हो ।। -कवितारानी। 

कहीं ठहर जाऊं मैं | kahi thahar jau main

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  कहीं ठहर जाऊं मैं  बहता दरिया हूँ मैं, कहीं तो रूक जाऊँ ।  ऊँची निची राहों से, कलरव ठुकराऊं ।। शांत सुकून कुंज सिंचू मैं । एकान्त वृक्ष पुंज से खुद को रिझाऊं मैं ।। कब से धरा कई बहा लाया हूँ । किनारों पे इतिहास की मिट्टी सजाया हूँ ।। रोक लूँ शीतल करने को, मध्धम हवा लूँ सी को भी । ठहर जाऊँ कहीं प्यास बुझाऊँ इस जग की हमेशा ।। जाकर दूर तक सागर में मुझे ना मिलना । नमकीन अस्वाद नीरस पय मुझे ना होना ।। सार अनन्त जग का गुणगान पुष्कर बनूं मैं । बहता दरिया हूँ मैं इच्छा करता कहीं ठहर जाऊँ मैं ।। -कवितारानी। 

घर आजा / ghar aaja

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  घर आजा संध्या की लाली, मन की प्याली, वो प्यास बढ़ाये, घर आ... घर आजा पंछी, सांझ हुई । थक गई  है जमीं,  खो गई आस भी, रोशनी की चाह भी, अब मन को समझा, संध्या हुई भोले मन, घर आजा, घर आजा पंछी, सांझ हुई आजा । भौर का तारा करता इशारा, कहया है दिन ढूब गया, सांझ का हुआ इशारा, ओ सांझ का सहारा, लौट जा अपने घर, मन को समझा ना । कोई नहीं आयेगा, ना मानेगी ये सांझ,  होगा ना रोशन जग, घर आजा ।। संध्या लाली, मन की प्याली, पी गई प्यास, मन की आस, अब सुन ना मन की, करले नियम की, खतरों कि जग जागा,  जागा है खतरा आजा, सांझ हुई मन आजा, घर आजा ।। देख पपीहा गया, वो मैना गई । राग अधुरा, अधुरी प्यास रही । काम अधुरा, गडरिया भी गया, खैत छोङ, किसान भी गया । गयी है गय्या, धरती की किव्वया, बढ़ गया अंधेरा, अब आजा । आजा घर आजा, वो राह निहारे, घर आजा ।। कल फिर जाना है, यह सब दोहराना है । कर्म भूमि रण है, वक्त की पुकार है । सांझ को जाना, भौर को आना । जीवन का गाना, आजा घर आजा । मनवा घर आना, वो माटी घर की, चुल्हा घर का । वो चक्की का शौर, भायेगी फिर भौर । चले आना फिर तुम, अभी आजा, संध्या लाली । गाये धु...

एकांत याद आता है | Akant yaad aata hai

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एकांत याद आता है । भीङ भरी दुनिया में, मैं अपने आप को खोजता हूँ । कुछ पल अकेला रह, मैं अपने एकान्त को खोजता हूँ ।। मेरा एकान्त बङा प्यारा था, वो जैसे मेरा सहारा था । जब कभी मैं दुनिया से हारा था, इसी ने मुझे संवारा था ।। मुझे एकान्त याद आता हैं, मुझे यही बस एक भाता है । मुझे कहने को बहुत कुछ आता है, ये सब मुझे एकान्त में ही बताना आता है ।। ये धैर्यवान था और सुनता मेरी आराम से । खुब समय रखता मेरे लिए और बङा मन रखता था मेरे लिए। । कभी छल कपट ना दिखा मुझे मेरे एकान्त में । कभी झूठ फरेब ना पाया मैंने एकान्त में ।। भीङ भरी दुनिया में घूम, मैं अपने लिए समय खोजता हूँ । कहीं बह सकूं सतत झरने सा मैं, अपने लिए जगह ढूँढता हूँ ।। जहाँ जाऊं मनमैलों को पाता हूँ, स्वार्थ से घीरे लोगो को पाता हूँ । मैं सच्चा बन, सच्चा रहना चाहता हूँ, इसीलिए एकान्त को चाहता हूँ ।। कहीं समय का छोर पाकर, शाम को शांत बैठ जो जाता हूँ । वहीं एकान्त याद आता है, और मन बचपन को गाता हूँ ।। मुझे एकान्त प्यारा लगता है, मेरा मन बस वहीं लगता है । मुझे फिर से वही जीना है, मुझे बस यही कहना है ।। -कवितारानी।

अच्छे लोग कहाँ ? | Achchhe log kahan

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अच्छे लोग कहाँ ? कलियुग पर दोष दूं, या फिर जमाने पर आरोप लगाऊं । मन में दुख भरा हुआ, इस कहुँ लिखुँ या गाऊँ ।। कहुँ किसे-सुनने वाले ऐसे अब बचे कहाँ, जो सुने भी मेरी । सबको अपनी पङी है, लिखुँ तो भी पङेगा यहाँ कौन मेरी ।। गाऊँ जो अपने दुखङे, मुखङे खिले लगते सबके यहाँ । सोंचे जो कि दुख से आनन्दित हुए ये, तो सच ही है अच्छे लोग कहाँ, यहाँ ।। जब जग में मनोरंजन प्यारा, बुरे लोगो का मनोबल रहेगा हारा । अच्छों की कदर नहीं, तो अच्छे लोगो का मनोबल रहेगा हारा ।। आवेश की कभी लहर चलती, नेट बंद की भावनाऐं शांत रहती । उकसावे से संवेग चलते, फिर स्वचालित, स्वविवेकी रहते मरते ।। मैं भी था अच्छा, मन का था सच्चा, जब था मैं बच्चा । अब जब बङा हुआ, बुरों से मिल रहा, समझ रहा, अच्छों के लिए जगह कहाँ ।। अच्छे लोग बस भाषण में अब मिलते हैं । कोई कमेंट करे या रिप्लाई यहीं दिखते हैं ।। ये एक आभूषण सा बन गया । हर बुरे तरह के लोगो को ये जम रहा । जम रहा की अच्छे दिखे हम । चाहते है कि सब अच्छा कहे हमें । दिखाते है कि हम है सबसे अच्छे ।। कर्म की जब बात आये, या देश की ही जब बात हो । त्याग की कुछ कहनी नहीं, स्वार्थ से बढ़कर ...

दूर तुमसे मन नहीं लगता | dur tumse man nahi lagta

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  दूर तुमसे मन नहीं लगता  अब आदत हो गई है, साथ रहने की आदत हो गई है । तुम्हारी आदत हो गई है, मन को लत सी हो गई है । अब मन नहीं लगता, बिन तुम्हारे कुछ नहीं जमता । शब्दों को सुनने की, तुम्हारी आवाज की आदत हो गई है ।। साथ सुहाना है मन का बहाना है । बहाना है, रह लेगे ऐसे भी वैसे भी । रह ना पाता एक दिन भी । दूर तुमसे मन नहीं लगता है ।। गये जब दूर तुम तबसे दीवारें खाती है । बंद कमरे में अकेले में हर चीज कुछ सुनाती है । छोटे-छोटे काम याद आते हैं । बिन कहे ही शब्द गुंजते जाते हैं ।। अब मन नहीं लगता अकेले में । अब रहा नहीं जाता अकेले में । अब सब शांत लगता है । दूर तुमसे मन नहीं लगता है ।। - कवितारानी।

समुह | Samuh

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  समुह  दल कहे या दलदल, ये समूह मुझे समझ नहीं आते । पाबंदियों को दोहराते, ये समूह रुकावटे हैं लाते । सारे समूह नहीं बुरे, ठीक ही कहा किसी ने । पर सारे समूह सही, ये ना कहा किसी ने ।। वो दल जो दलित बनाकर शोषण करे । वो दल जो स्वाधीन को अधीन करे । वो दल जो बल से राज करे । स्वतंत्रता ना जहाँ वो दल सही कहाँ ।। आत्म सम्मान जहाँ समान ना हो । जहाँ किसी एक मत का अधिकार हो । जहाँ किसी की बात मानी ना जाये । वो दल समूह कहाँ तक सही ।। अच्छे से अच्छे दल बिखर जाते है । जब शिखर की बात तक कोई ले जाते हैं । तब बस एकान्त का राही होता है । मंजिल पर हर कोई अकेला खङा होता है ।। तो मित्र चुनों, मित्र समूह नहीं । अपना लक्ष्य चुनों, दल को नहीं । अपनी राह चलो सबकी नहीं । सबको साथ रखो पर रहो अकेले ही ।। -कवितारानी।

वक्त-वक्त की बात है | waqt-waqt ki baat hai

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  वक्त-वक्त की बात है वक्त-वक्त की बात है,  हाँ सब वक्त की बात है । कोई खास होता है कभी, कभी कोई नाराज है । कोई खाश होता है कभी, कभी कोई नागवार है । ये समझ की बात है, या फिर बस वक्त की बात है ।। ज्ञान देता है नीच कोई, बेबस सुनता इमानदार है । घमंडी अकङता है कहीं, सहता बलवान लाचार है । लुटता देश-दौलत को कोई, देखता बेबस आम है । ये वक्त-वक्त की बात है, हाँ सब वक्त की बात है ।। चापलूस करता मौज कहीं, मेहनती का ना गुणगान है । गुणहीन का बोलबाला कहीं, गुणवान का दिक्कार है । बेईमान ईमान का बखान, सुनता जन जैसे ज्ञान है । ये सब वक्त की बात है, ये वक्त-वक्त की बात है ।। उपकार करता लालची, निस्स्वार्थ दान का बहिष्कार है । शराबियों की वाह वाही, सज्जन का तिरस्कार है । अपराधियों को पुरस्कार कहीं, नेक दिल पर अत्याचार है । ये वक्त-वक्त की बात है, ये सब वक्त की बात है ।। सन्मार्गी का मजाक कभी, कुमार्गी पर ध्यान है । कुकर्मी का सत्कार कहीं, सत्कर्मी पर तलवार है । कलियुग का दौर भारी, हर और हाहाकार है । ये वक्त की बात है, ये आज के दौर की बात है ।। -कवितारानी।

काश मैं फिर बालक बन जाऊँ | Kash main fir balak ban jau

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  काश मैं फिर बालक बन जाऊं  काश! मेरी ईश्वर सुन ले । काश ! मेरे ईश्वर मेरी सुध ले । मैं अपने लक्ष्य का राहगीर अटका हूँ । मैं अपनी मंजिल पाने से पहले भटका हूँ । मैं गलती अपनी ढूँढने लगा हूँ । मैं देख रहा हूँ मैं सही हूँ । फिर जग के बोझ भारी लग रहे । मुझे लोग बेवजह दुश्मन दिख रहे । मुझे अनजान आकर मिल रहे । मैं अनजानों में रिश्ते खोज रहा । जो है नही कहीं से सगे, मैं उनमें ही हूँ उलझ रहा । मन का मैला उनसे पूछ रहा । बता मुझसे रूठने की क्या वजह । मैं लडूं उनसे जो बैरी है और मान जाऊँ अगले पल मैं । मैं नजरअंदाज लोगो को कर दूं । जटिल बातों को ना समझू । मैं भूल जाऊँ बुरा करने वाले लोगो को । मैं बचपन में चला जाऊँ । काश ! मैं फिर बालक बन जाऊँ । काश ! मैं फिर बालक बन जाऊँ ।। - कवितारानी।

मुझे नफरत है | mujhe nafara hai

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  मुझे नफरत है जो अपने आप में सिमटे हैं । अपनी ही बस दम भरते हैं । दुसरों से ईर्ष्या करते हैं । अपनी ही बस कहते हैं । मैं कैसे इनसे मिलकर रहूँ । मैं कैसे इनसे प्रेम करूँ ।। साफ मन और साफ इरादे पाये हैं । एक लक्ष्य और संघर्ष अपनाये हैं । मैं साफ मन लोगों से आया हूँ । मैं दिल में बस प्रेम बसाया हूँ । फिर कैसे मैं ईर्ष्यालुओं को अपनाऊँ । फिर कैसे मैं बैरियों से मन लगाऊँ । कैसे मैं अपने विरोधियों को सहुँ । मैं बस इनसे नफरत करूँ ।। मुझे नफरत इंसानो से नहीं । मुझे नफरत मन मौजियों से नहीं । मुझे नफरत है पीठ पिछे बुराई करने वालो से । वो जो मुझसे जल जल कर मरते हैं उनसे । वो मुझे निचा दिखाना चाहते हैं उनसे । उनसे जो मेरी खुशी में दुख भरते हैं । मुझे नफरत है परपीङा में खुशी ढुंढने वालों से । मुझे नफरत है पिछे पङे हुए शैतानों से । मुझे नफरत है इन राह के पङे हुए पत्थरों से । मुझे नफरत है मेरे दुश्मनों से ।। -कवितारानी।

मैं पीर पूछूं | main peer puchhun

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मैं पीर पूछूं पीर पीङा को कहते या कहते देव जन को । मैं तो पूछूं पीर को ।   पीर पराई जाने जो, जाने दुख जन के । दुख ही पीर है, मैं पूछूं पीर को । पीर जाने पीङा सारी, सारी पीर जाने है । जाने यहाँ पीर है देव ही । तो ही पीर है तो दुख दर्द ही है पीर यों । मैं पीर पूछूं जग से । पीर में देव है, देव ही है पीर ये । क्या पूछ रहा हूँ मैं, भ्रमित हूँ खुद ही मैं । मैं पीर पूछूं यूँ जग से । मैं पीर पूछूं ।। -कवितारानी।

नयना | Nayana

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नैना  शब्द सहेज सांझ गाता, मैं भंवरा फुल पर मंडराता । सहज सरल मधुर दिखते, नयना कुसुम से दिखते ।। नयना वो मद के प्याले हैं, मधुशाला से अधिक रस वाले हैं । भृकुटि पर और जमते हैं, तिरझे होकर देखते घाव करते हैं ।। अधरों पर ध्यान जाता, मैं चकोर चाँद पर गाता । सुन्दरता फिर आकर्षण में होती, मधुर मुस्कान मन से होती ।। नयना क्षीर सागर से गहरे हैं, अमृतपान से ये लगते हैं । पीर पंछी बन है रमती, आनंद की छवि तन पर जमती ।। दर्द पुरानी फिर औझल है, नयनों में ये कैसा जादू है । एक टक जो मिल जाये ये, हृदय स्पन्दन बढ़ा जाये ये ।। नयना प्रेम मार्ग होते हैं, इनसे ही जीवन प्रेम मय होते हैं । बङा आनंद की अनुभूति देते हैं, जो रस नयनों से पिये होते हैं ।। -कवितारानी।

चुनों अपनी राह | Chuno apni rah

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  चुनो अपनी राह लोग क्या कहते हैं परवाह छोङ । अपनी मंजिल के लिए चुनो अपनी दौङ । चुनो अपनी राह की भविष्य निहार रहा । अपने आज में क्यों तू खुद को बांध रहा । नये युग का आगाज है । सपनों की नई उङान है । खुद को ना यूं तू रोक । अपनी मंजिल के लिए खुद को झोंक । वो कल तेरा रास्ता निहार रहा । सुबह का सुरज तुझे देख रहा । अंधेरे को दर किनार कर । बन रवि तू आगे बढ़ । हे राहगीर सच्चा मान कर । रास्ता चुनना थोङा संभाल कर । हर रास्ते की एक मंजिल है । तू रूकना ना एक बार चलने पर । साथी बने राहगीर तु घुलना ना । राह के आरामगाहों में तु रुकना ना । तेरी मंजिल बङी व्याकुल है तु रुकना ना । यही सोंच करती रहे तुझे व्याकुल तु रुकना ना । चुनो राह अपनी अब समय नहीं । मंजिल के मुसाफिर कई । जो तु ना बढ़ पायेगा । फिर कैसे युग तुझे गायेगा । चुनो राह अपनी । कि मंजिल बुला रही है ।। - कवितारानी।

झूठा साथी | Jhutha sathi

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  झूठा साथी  साथी होता अजीब ये, दिखने में भी लगता अजीज ये । पर समझता अपने को नाचीज ये, खुद को मानता नामची ये । ये झुठा साथी, साथ ही रहता । ये झूठा साथी, खास ही कहता ।। पर इसके होते तर्क अजीब, करता रहता कुतर्क अजीब । लगता जैसे अपने को झूठा बतला रहा हो, जैसे अपने को नीचा दिखा रहा हो । ये खुस होता अपनी सफलता में, पर बखान नहीं करता । अपनी सफलता को छोटा कर, किस्से दुनियाभर के कहता । लोगो से अपनी मनवाने की होङ करता । साथी कहता अपने को पर, अपनी बात का हमेशा खंडन करता । ये झूठा साथी, झूठ के बल पर जीता । ये झूठा साथी, अपने मन मर्जी की करता । इसे फर्क नहीं पङता अपन ने जो कभी अपने हक की कहा । रहा जाता ना इससे एक पल को कुछ कहे । और हर कहने में खुद की ही इसने कहा । ना घर पर ये हमें ले कर चलता । ना अपने को कभी छोटा कभी दिखने देता । सुनता ना अपनी एक बात को, मन से कभी । स्वार्थ में सबसे आगे है ये रहता । ये झूठा साथी, मतलबी है बहुत।  ये झूठा साथी, अवगुणी है बहुत । कहीं दिखे ऐसे गुण किसी साथी में आपको भी । तो आगे बढ़ जाना उसे भुलाकर के ।। -कवितारानी।

मन मैले | Man mele

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  मन मैले  कपङे होते तो धो लेता, साफ रहने की जो मुझे आदत है । मटमैले कभी पहने नहीं, यही मेरी एक आदत है । पर मन मैले लोग आजकल मिलते हैं, इनसे कैसे दूर रहूँ । मुझे तो मन मैलो में भी नहीं रहने की आदत है ।। तन के साफ रहते हैं, अपनी ही हरदम कहते हैं । सुनते नहीं एक पल को जो मेरी, यही मेरे मन की व्यथा भारी है । पर लगते बङे सयाने हैं, हर बात में गाते गानें हैं । मुझे तो ये मटमैले कपङो से भारी लगते हैं, मुझे ये मनमैले बुरे लगते हैं ।। हर दम मुख पर इनके बुराई रहती, नाक चिढ़ी और भोहें सिकुङी रहती । अपने चमचो की तादात बढ़ाते हैं, ये हर वक्त खुद की चलाते हैं । एक पल को जो सच की बात करो, गुस्से से भर ये जाते हैं । रिश्तो से ज्यादा अहम् है भाता, मन के मैल से भरे ये रहते हैं ।। मैथ एक पल को मन मारता हूँ, दुजी बार को कुछ नहीं कहता हूँ । तीजी बार मुझे भी चिढ़ होती है, फिर सत्य वचन पर तकरार होती है । मैं तर्क के साथ साक्ष्य लाता हूँ, और मन मैलो को खोया पाता हूँ । फिर बात पलट ये घूमते हैं, निचा दिखाने को मनमैले ये रहते हैं ।। सच्चे दुश्मन कहूँ या कहूँ जोंक इन्हें, चिपके भी रहते हैं ये । हर बार क...

बेधङक | bedhadak

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बेधड़क  कोई रोके राह मेरी या आ खङा हो सामने जो, मैं भीङ जाता हूँ उनसे ही, मैं लङ जाता हूँ उनसे भी । बेधड़क अपनी मंजिल का राही मैं । अपनी धुन में चलने वाला हूँ । मैं अपनी दौङ-दौङता हूँ । मैं अपनी राह पर चलता हूँ । फिर भी कोई अनायास-प्रयास कर रोके तो । मुझे मेरी राह पर चलने से टोके तो । मैं बेधड़क टकरा जाता हूँ । मैं जैसे चाहे वो, वैसे लङ जाता हूँ ।। ये आज से नहीं, जमाने से होता आया है । लोग चाहते नहीं, आगे बढ़े कोई । बस करते कोरा दिखावा है । दुख में राही को झूठी सांत्वना बरसो से, जो पथिक निकला उनसे आगे तो, रूकावटे बनते वो ही है । मैं बेधड़क ऐसो से भीङ जाता हूँ । लङता हूँ अङता हूँ और आगे बढ़ जाता हूँ । मैं आगे बढ़ता जाता हूँ ।। समझौते में व्यवहार मैं करता हूँ । लोगो से ज्यादा खुद की परवाह करता हूँ । अपनी ही पहले सोंचता हूँ । अपने मन की ही सबसे पहले करता हूँ । ये लोग मेरी सफलता के साथी बस । यहाँ हूँ काम के वास्ते बस । इनसे मेरा क्या लेना, क्या देना है । मैं बेधड़क कहने वाला हूँ । मैं बेधड़क रहने वाला हूँ ।। -कवितारानी।

सोंच | Soch

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  सोंच  कल की सोंच उलझे हो ? क्यों ऐसे रूखे से हो ? अपनी फिक्र करते हो । अच्छा है अपने दम पर जीते हो । सोचना अच्छा है, अपनी फिक्र अच्छी है । पर जो रोक दे कदम,  वो सोंच गहरी है ।। गहरी सोंच भटकाती है । कभी-कभी ये हमें डराती है । और डर के कौन अच्छे से जी पाया है । मन का हारा-हारा ही रह गया है ।। सोंचो तो इतना की, पंख ना रूक पाये । खुले आसमान में कोई ना रोक पाये । रुकावटों को हटाने के उपाय सोंच लो । करना क्या है जीवन में ये सोंच लो ।। अपने कर्म को निखारने की सोंचो । अपने धर्म को अडिग करने की सोंचो । सोंचो की साथ क्या ही जायेगा । याद रखो सब यही गाया जायेगा ।। मन को लगाम देकर रखो । विचारों को स्वतंत्रता से रहने दो । सपनों को पंख फैलाने दो । सोंचो और बेहतर करने की बस ।। - कवितारानी।

तभी जी पाओगे | Tabhi Jee Paoge

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तभी जी पाओगे यदि कर सको तो सहन करो । यदि रह सको तो शांत रहो ।  यदि पी सको तो क्रोध पीओ । यदि खा सको तो अहम खाओ । यदि कह सको तो सच कहो । यदि सुन सको तो मधुर वचन सुनो । यदि कर सको सत्कर्म करो । यदि रख सको तो सम्मान रखो । और कुछ ना रख सको तो, खुद का मान रखो । आत्मा में अभिमान रखो । आँखो में प्रेम रखो । गालो पर सौन्दर्य रखो । होठों पर राम रखो ।। देखो फिर ये जग तुम्हारा होगा । देखो फिर ये कल तुम्हारा होगा । ये सब जो तुम देख रहे सब तुम्हारा होगा । ये सब तुम्हारा गुणगान करेगा । ये सब तुम्हारा ही सम्मान करेगा ।। और फिर तुम जीओगे, और सच में तभी तुम जी पाओगे । और तुम कहोगे यही तो वो जीवन है, जो पढ़ा था काताबों में । जो सुना था कभी अपनों में, जिसके थे गीत बने । जिसके थे कई मनमीत बने, अपने बने ।। कठिनाई से ना डरना तुम । आंसुओ से ना भरना तुम । आये मुश्किलें हजार लङ लेना । पर मंजिल की राह पर ना रुकना तुम । मैं रुकने की कहूँ ,या कहे मन हार के, तो भी चलना तुम । तभी जी पाओगे और मंजिल को पाओगे ।। -कवितारानी।

ऋत बदलती / Rit badalati

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  ऋत बदलती नव दिन-आभा-भौर तिमिर से लङती । अठखैली, मटमैली सी दिन भर तेज चमकती । सप्ताह, मास, दिन कट जाते । ग्रीष्म गई, वर्षा गई, शीत संग फिर ऋत बदलती ।। ऋत भई भाई आई उबकाई भी । ठिठुरन से भौर हुई धूप बहुत खाई भी । नित कर्म काज में लगे चलते कल हम । शीत भई करते रहते फिर भी करते कलरव हम ।। नई ऋत का स्वागत गान करते । भावी भाग आज से लङते चलते रहते । कहते क्या आज, हर कहीं हर बात बदलती । कहते शीत लगी तो पता चला ऋत बदलती ।। पहरा प्रकृति का सब और है रहता । मन मानव ऋतु का रंग बदलता । बंद आशियानों में कहां मति कुछ कहती । व्यस्त, आरामपस्त, स्वार्थपूर्ण संसार में समझ मरती ।। सगे साथी अपने सब मतलब तक आते है । धर्म, अर्थ, काम स्वार्थ तक सब गाते हैं । बदलती फितरत का कभी ज्ञान होता । जब रंग अपना हल्का होता तो सब को अखरता । अखरते हुए रंग में फ़ितरत सबकी पता चलती । प्रकृति तो तब भी कहती ऋत तो हमेशा बदलती है । कुल करो अपने सामर्थ्य को, अनुकूल बनो तुम । लङो ना प्रकृति, प्रकार से अपने सत्कार करो तुम ।। गिन लेगी शीत भी, शीत भी रहे जो । कोई पुछेगा नही जग में डीट रहे तो । पत्ता पत्ता कर पेङ मजबुत कर लो । शीत...

खई बाकि | Khai baki

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खई बाकि बचपण री बातां गी, बातां भूली मोटीयार री । पचपन री उमर होई, रातां धुली मुरझाई सी । खुण साथ, खुण परायो ह, सब जाण ग्यो । खई पास ह, खई-खई खोयो, खई बाकि जाण ग्यो ।। जाण ग्यो खई साथ नी जाव, जाव नी काया साथ । भाई-बन्धु, बेटा-बेटी, न लोग-लुगाई रे व पास । व अंत समय बस यादां रे व, वे भी रे जाव राख । खई बाकि, खई सोचूं, सब मिलेगा, होवगा राख ।। मन मारूं, ईच्छा मारूं, मारूं म्हारो इतिहास । जोर दिखाव बालक खदी-खदी सामं आव मोटीयार । समाज स लडू खदी-खदी खुद ही नी आऊं रास । खई बाकि रे ग्यो जद परिवार नी बैठ पास ।। देखूं लोगां ही, देखूं परिवार वालां नी, लगार आस । कदी खेऊं मन की और सुनूं जसा हो फटकार । हार नी मानूं उमर म बङो, तजुर्बो देव सास । खई बाकि बच्यो जग म, जद देखु यो संसार ।। अंत समय पास आव, लगाऊं स्वर्ग की अरदास । कर्म करूं, सतसंग करूं, करूं मानवता रो काम । नाम नी छाव, दन कट जाव, रेव थोङो आराम । खई बाकि हिसाब लगाऊं, बताऊं सब बस म्हारो राम ।। खई बाकि, खई बचायो, बचायो कमायो नाम । साथ रेव या राख होव, मन रेव राम, मन रेव राम ।। - कवितारानी।

होय सब जो राम राखा | hoy sab jo ram rakha

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  होय वही जो राम राखा माई म्हारी छोङ गी जद, छोङ ग्यो उंजाळो । जग म ढोल पीट लोग, खैव मई बैचारो ।। आफत आई दुख बणक, जग म नी कोई सहारो । छोङ दुनियादारी रवि गायो, राम भजण ह प्यारो ।। खोई खेव बेबस्यो, तो खोई खैव लाचारो । मूं जाणु नादान नी जो, होव सब जो ह राम प्यारो ।। जीवण म होय सब जो भाग म लिख्यो म्हारो । होव सब जो सब जो राम न लिख्यो, होव सब राम को प्यारो ।। पोथी पढ़-पढ़ जग मुड्यो, प्रेम की बात न सुझ । भूल दिया बाती तेल, यो लो जल् क बुझ् ।। फुल खिल्यो ताजो ताजो, मुरझाणों ह इन एक दिण । ह अंधेरो रात न भल्, मटणो ह इण रात क बिण ।। रास्तो ह लम्बो घणों, इण काटणो ह चलत-चलत । सोंच काही की विचार कई फेर हो जाव सब रित् ।। जो मिले राम भाग माथे, जप ल राम नाम न । होय सब भाग माथे, होय सब जो राम राख ।। - कवितारानी।

Manavata sharmsar | मानवता शर्मसार

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  मानवता शर्मसार  भेद कई हो गये जन-जन में अब । पीङा भरी रहती मन में अब । किसे कहे क्या है मन भय बना । सत्य की राह पर है नुकसान बना । मानवता शर्मसार है । दिल में भरी रहती हार है ।। जीते हैं जीत की उम्मीदों में । हारते हैं हार की उम्मीदों में । अपनी उम्मीदों पर भारी ओंरो की । लोगों की बङी दिक्कत ये ।। कोई अपनी धुन में चल नहीं पाता । अकेला रहे कहीं, क्यों रह नहीं पाता । वजह होती है हर चीज की जहाँ । बेवजह लोगों में कोई रह नहीं पाता । मानवता शर्मसार, दिल पर मार है ।। सब को मस्ती की पङी है । दुर्गम हो आसान हो । लोगों को बस स्वार्थ की पङी है । मानवता लाचार खङी है ।। - कवितारानी।

क्या राह दिखाऊं मैं | Kya rah dikhau main

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क्या राह दिखाऊं मैं  मैं खुद दूविधा में उलझा, सुलझा ना खुद को पा रहा । कुकर्मियों के कर्म सुनता, सत्कर्म होते क्या भूलता जा रहा । अनजान नहीं अंजाम से, पर लचार खुद को पा रहा । क्या राह दिखाऊं मैं, खुद ही अपनी राह भूला जा रहा ।। जाल मैं फंसा हूँ अभी जैसे, उठता-गिरता झटपटा रहा । सच से दुख पाता गहरे तो, झूठ अपनाता जा रहा । ईमानदारी शूल सी चुबती तो, बेईमानी सिखते जा रहा । क्या राह दिखाऊं मैं, खुद मुशाफिर की पहचान खोते जा रहा ।। दिन के अंधेरे पर मौन रहता, रात के अंधेरे में ऊजाला पा रहा । भीङ की चुभती बातों से, मौन गले उतारता जा रहा । अज्ञानियों के ज्ञान से भर गया, ज्ञानियों को भूलता जा रहा । क्या राह दिखाऊं मैं, खुद पथ से भटकता जा रहा ।। ईर्ष्यालु नजरें दिल चीर गई, इस बार आत्मा को संभाल रहा । द्वेषी बेवजह के निचोङ गये, इस बार मन को मार रहा । बेईमानों के आगे खुद बेबस, अकेला मैं ईमान को तौल रहा । क्या राह दिखाऊं मैं, खुद जो ईमानदार ना रह पा रहा ।। चालाकों के कुचक्र में उलझा रहता, खुद को बचाये रख रहा । नालायकों के नजरों से खटका, खुद के कर्म संभाल रहा । भ्रष्टाचारियों के दबाव में जी रहा, अपन...

Main pareshan | मैं परेशान

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  मैं परेशान  होङ नहीं किसी से, ना किसी से बैर मेरी । अपनी उलझनों में उलझा, जग में होते बैर कई । मैं जब अपनी धुन का राही रहता, कम ही किसी से हूँ कहता । फिर क्यों लोग आते हैं और परेशान मुझे कर जाते हैं ।। मैं अपने पंखो से उङान भरता, खुद के दम पर ही मान करता । मैं अपनी मंजिल का पारखी हूँ, मैं खुद की धून का धूनी हूँ । किसी से कुछ लेना- देना ना, फिर क्यों जग मुझसे ऐंठे । सोंच अकेले में करता रहता, मैं परेशान उलझा रहता ।। कुछ मतलबी आजकल मिलते हैं, कुछ स्वार्थ लेकर साथ चलते हैं । कुछ ईर्ष्या से नजर चुराते हैं, कुछ शब्दों के तीर चलाते हैं । कुछ बेवजह ही दुश्मन बन जाते हैं, कुछ मेरे खिलाफ लोगों को भङकाते हैं । कुछ कमी मैं अपनी ढूँढता हूँ, मैं परेशान अपने ढूँढता हूँ ।।  मेरी मंजिल कहीं रूठी है, मेरे सपने कहीं खोये हैं । मेरी आजादी पर बंदीशें लग रही, मेरी आवाज कहीं दबी है । मेरी राह कहीं गुम है, लगता है जैसे जीवन में बस गम है । मैं परेशान होकर बैठा हूँ, मैं राह फिर तलाश रहा हूँ ।। दौर पुराने देखे सारे मैने, अपने और पराये देखे सारे मैने । बुरे से बुरा होता आया है, मन मेरा दुख मेथ भी ...

Vishwash bada durlabh hua / विश्वास बङा दुर्लभ हुआ

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  विश्वास बङा दुर्लभ हुआ फिरता जग में मैं आवारा हुआ । कहता अपनी खुद की मैं, मैं बावला हुआ । हुआ सच्चा मन का खुद का, खुद का सगा हुआ । खोजा जो भरोसा जग में फिर, दगा साथ मेरे हुआ । यही समझ आया, विश्वास बङा दुर्लभ हुआ ।। मैं साफ मन का, तन का साफ दिखता । मैं शब्दों से साफ, सीधा अपनी बोली रखता । खोजता आईना अपना, कोई अपना समाज में खोजता । सब पर विश्वास करता मैं, मैं खुद के दम पर जीता । आखिर दोखा खाता, समझता, विश्वास बङा दुर्लभ हुआ ।। जो जन्में आस-पास थे, हुए अब दूर कई । जो कर्म पथ पर मिले साथ थे, हुए नजरों से दूर कहीं । मैं उनमें अपनापन खोजता, मैं उनमें अपना खोजता । देता कर न्यौछावर सब ही, और फिर दोखा खाता । समझ आता आखिर कि, विश्वास बङा दुर्लभ हुआ ।। फिर मन का मारा, हारा मन का मैं होता । रोता था कभी जो रवि अब ना रोता । साथ जीवन साथी, अपनी मैं कहता रहता । सहता जग के बोल बङे, छोटे मनके सबको कहता । समझा जो जीवन में वही कहता, विश्वास बङा दुर्लभ हुआ ।। -कवितारानी।

जमाना | Jamana

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  जमाना मैं बन शिक्षक भिक्षक लगता । कभी अपने शिष्यों को, तो कभी जमाने को तकता । थकता मैं काम करते, करता अपना काम मन से । धन से दूर नहीं पर चुनता शिष्य मन से । जो मनका होता वो जमता, शिष्य के लिए मैं काम करता । जमाना सोंचता मैं कंजुसी करता । मैं चुनता काम अपना ।। जमाना है बदला, बदला है मिजाज सबका । ज्यादा ज्ञान विद्या दो तो सुनता ना कोई । ज्यादा आराम करो, चिंता रहित रहो तो चुनता ना कोई । जो मौज में रोज रहता, जमाना चिढ़ता रहता । ईर्ष्या से अपशकुन करते, जमाने को मैं ना जमता । जमाना चाहता दुखी देखना । मैं चुनता काम अपना ।। दोपहर देखे साल हुए, जब देखे दोपहर अंधेरा होता । जीवन की भाग दौङ में मैं जवानी खोता । होता भला की छांव मिलती, घाव में दिन ढलता । अपनी रोजी को मैं भागा फिरता, जमाना इसे मौज कहता । रहूँ अपने में तो स्वार्थ कहता, सबसे कहूँ तो बावला कहता । जमाना चाहता अपना सा बनाना । मैं अपनी राह खुद चुनता ।। - कवितारानी।