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खुश रह | Khush rah

खुश रह  खुश ही था दिन भर का, अपना काम कर रहा था मन से मैं । सोंचा चलो किसी का भला सोंचे, अपने दिये काम से ज्यादा कर ले । पर जानता था मुक्त की चीज की कदर कहाँ,  कौन पुछे भलाई को यहाँ । वही हुआ समझने की नौबत रही, बात खुद पर ही आती रही । क्यों ज्यादा सोंच काम करता हूँ,  जिन्हें जरूरत नहीं उनकी सोचता हूँ । क्यों मैं अपनी शक्ति खो रहा, दुखी मन लेकर क्यों दिन खो रहा । कदर पैसों वालों की है जग में,  मेहनत बिन पैसे करना फिजुल है । जमाना कलयुग का है रवि, क्यों सतयुग सा मन लेके जीता है । खुश रह बस अपने हिस्सा का लेकर, मान पर बस अपनी सुनकर । कठोर ना बन सके तो छोड़ दे, अपना काम कर, कुछ समय पर छोड़ दे । उनके भाग का वो खायेंगे,  वो अपना का कर्म पायेंगे । तु अपना काम करना अब, व्यर्थ धर्म पर ना पड़ना अब । सिख समय की काम ले, खुश रह और रब का नाम ले ।। Kavitarani1  152

असहाय | Asahay

  असहाय  हाय विपदा भारी, मन की हारी । हाय कहाँ छूपाऊँ, मन का मारा बेसहारा । खुद लिखूँ मिटाता जाऊँ, असहाय मैं । हाँ लगता है अब; असहाय मैं ।। बोझ पहले भी था, मन से तड़प भी था । पनपा भी था मैं, रेगिस्तान में । हाँ भरे कोहरे मे भी चला था मैं । पर बोझ बदले है उम्र बदली है । पहले जोश भरा था मन में मेरे । अब लग रहा असहाय मैं ।। डर है कल कौन अपनायेगा । अँधेरे में गये रवि को कौन ला पायेगा । कौन कहेगा फिर ये सवेरा है । चलना दिन भर है अभी दुपहर सा जलना है । अभी बाकि है दिन तेरे, और हौंसले के बिन है । हाँ शायद तुझे लग रहा मैं असहाय । हाँ मैं असहाय सहायता मांग रहा ।। कोई आये ऊर्जा दे, जकड़ा जा रहा राह पकड़ दे । दे आशा कि किरण की जल जाऊँ मैं । भरा पड़ा हूँ ज्वाला से बस फिर से सुलग जाऊँ मैं । हाँ मुझे जरूरत है, किसी अपने की जरूरत है । हाय कोई राह दिखा दे, मुझे गले लगा ले ।। ये विपदा भारी, मन की हार भी । जीने के सारे रास्ते है । मुझे आगे बढ़ने से रोके है । हाय कैसी फैली मन पर महामारी । लगता असहाय, प्रहार हुआ भारी ।। Kavitarani1  136

शिक्षक है हम भूल ना जाना | Shikshak hai hum bhul na jana

शिक्षक है हम भूल ना जाना  जीवन संघर्ष में दौर कई आते है । किताबों से लड़-लड़ कुछ लोग आगे बढ़ जाते है । विद्या ध्यान पाकर विधारागी बनते हैं । पथ का गौरव पाकर हम गुरू जानते है । दान - दक्षिणा के हकदार नहीं अब । सरकार के नौकर है हम सब । पैशे से जनता के सेवक है अब । लोगों के भावी भविष्य बुनते है हम सब । हमें समाज सुधारक बन काम करना है । देश के युवाओं का उद्धार करना है । मार्ग दर्शक है हम, मार्गदर्शन सबको कराना है । पैसों में उलझ कर्त्तव्य ना भूल जाना है । शिक्षक है हम भूल ना जाना है ।। Kavitarani1  101

दुविधा में Duvidha mein

दुविधा में  पहले से असुविधा में,  मैं जाने कैसे काट रहा अपने दिन । फिर आये दिन की परेशानियाँ,  आये दिन समझता खुद को हीन ।। हॅस के गुजारता दिन, और मन में रहते कहर दुर दिन । फिर भी मैं दीन हीन कोशिशों से, आज भी गिन रहा दुविधा के दिन ।। पकड़ हाथ अपनों का चलूँ, साथ लेकर सबको मैं बढूँ । सबकी बात करते ,उठते और बढ़ते,  मैं कभी उढूँ कभी गिर पढूँ ।। आज इसमें उलझा, मैं कल था उसमें जा उलझा । यहीं सोंच लेता कभी-कभी कि, मैं था कब सुलझा ।। एक उम्र की विधा में,  आशाओं की ओर सुविधाओं में । जाता हूँ लौट आता हूँ,  लगता है मैं हूँ दुविधा में  ।। Kavitarani1  101

आसान नहीं | Aasan nahi

  आसान नहीं  अकेले बंद कमरे में रहना । भीड़ में सुने बिना रहना । अँधेरे में चलते रहना । कोई पूछे और चुप रहना । आसान नहीं । आसान नहीं ।। कर्म पथ पर धर्म से बचे रहना । धर्म में राजनीत का ना रहना । अंधे अनुकरण कर्त्ताओ को समझाते रहना । अज्ञानी की हठ को भूल कहते रहना । आसान नहीं । आसान नहीं ।। लोगों में रह लोगों सा दिखते रहना । सपनों को छोड़ बस दौड़ में रहना । खाना और काम पर जाते रहना । खाली समय यूँ ही टहलते रहना । आसान नहीं । आसान नहीं ।। सब समझते हुए ना समझ रहना । सब जानते हुए अनजान रहना । पागलों में पागल बने रहना । अहमीयों में अहम् से बचे रहना । आसान नहीं । आसान नहीं है ।। अच्छी बातों को छोड़ते रहना । बुरी बातों को सहते रहना । बिन कहे किसी को समझते रहना । बिन दिखे नतीजे कहते रहना । आसान नहीं । आसान नहीं ।। मुर्खो की टोली में मुर्ख बने रहना । समझदारों को ज्यादा दिन सहते रहना । आसान नहीं । आसान नहीं  । Kavitarani1  91  

क्यों | Kyon

क्यों  ? कभी आ रहे हो, कभी जा रहे हो, क्यों ना मुझे समझ पा रहे हो । शर्मा रहे हो, मुस्कुरा रहे हो, क्यों ना मन की कह पा रहे हो । बता रहे हो, सुन रहे हो, क्यों मन की कर पा रहे हो । दिख रहे हो, छुपा रहे हो,  क्यों ना मुझे अपना रहे हो,  बन रहे हो, बिगड़ रहे हो, क्यों ना मेरे लिये सँवर पा रहे हो । बता रहे हो, छुपा रहे हो, क्यों ना मुझे अपना पा रहे हो । क्यों दुनिया से डरे जा रहे हो ।। Kavitarani1  87

तुम्हें मेरी याद नहीं आई | Tumhe meri yad nahi aayi

तुम्हें मेरी याद नी आई  सबको मेरी याद आई, दूर खड़ी दीवार भी मुस्कुराई । पास पड़ी चार पाई भी समझ पाई, पर तुझे मेरी याद नी आई ।। सुबह को सुरज मिलने आया, शाम को चाँद शर्माया । तारों की रोज बरातों सी आई, पर तु नी मिलने आई ।। सर्दी लिपट कर चढ़ आई, कोहरे ने रास्ते पर पलकें बिछाई । सर्द हवायें गालों को चूम कपड़ो में भर आई, पर तु नी आई ।। दिन को धूप सिर पर चढ़ आई, किरणों ने रोज राह दिखाई । शाम को सूर्यास्त की सुनहरी भी मिलने आई, पर तु नी आई ।। रात को अँधेरे को मेरी याद आई, डर ने भी मेरी पकड़ी कलाई । नींद ने तो बाँहे मेरे लिये ही फेलाई, पर तुम्हें मेरी याद नी आई ।। सपनों की हर परछाई पास आई, अधूरी ख्वाहिशें भी मिल आई । अलार्म को भी समय की समझ आई, पर तुम्हें मेरी याद नहीं आई ।। Kavitarani1  87

मन मेरा | man mera

मन मेरा  कहने को जग है साथ में,  पर मन को कहाँ कोई भाता । सुनने को सब है पास में,  पर मन को कहाँ समझ आता । कुछ ही लोग मिलते है जीवन में । जिन पर मन आता ।। बोल मेरे बड़े बेमैल होते, हर कोई इन्हें कहाँ समझ पाता । शब्दों का झोल भरा होता इनमें,  हर कोई कहाँ इन्हें तोल पाता । कुछ ही संयोग आ टकराते हैं, जिन्हें मन आसानी से समझ जाता ।। मन मोहक छवि लेकर रस भरी बोली जाते, आँखो में चमक भर प्यारी सुरत दिखाते । हर मोड़ पर मिल जाते है लोग प्यारे से, अपनी अदाओं का जाल बिझाते दिखते । हर को हर मासुम चेहरा कहाँ भाता ।। बड़े अनमोल है ये चुनिंदा कुछ लोग मेरे, जिन्हें समय साथ मैं खोता जाता । कुछ अड़े रहते जिद पर अपनी, कुछ को मैं नहीं समझ पाता । कहता रहता लड़ते झगड़ते ही, न माने ये तो खुद मान जाता ।। आखिर एकान्त वासी बना बैठा हूँ,  और मन को कहाँ समझ पाता ।। Kavitarani1  85

मेरी दबी हॅसी | Meri dabi hasi

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मेरी दबी हॅसी  मेरी शामें रूकसत सी रहती है । मेरी दबी हॅसी अक्सर मुझसे कहती है । कहाँ खोया हुआ मन तु रहता है । क्यों ना मुझसे सब कहता है ।। क्या हुआ जो वो तुझसे रूठा है । खास था पर कहाँ जग से छुटा है । भूल जा बुरे लम्हों को मस्त रहा कर । कोई ना मिले कहने को मुझे कहा कर ।। मैं शांत शीतल सब औझल करने वाली । सुरज की तेज गर्मी को भी हरने वाली । तेरे प्रताप, आवेश को भी हर लूँ । आ पास बैठ मैं तेरे दिन की सुन लूँ ।। खुलकर हॅस मुझे दबाये रख ना ज्यादा । मुझे छुपाने से घट रहा वजन आधा । कहूँ तुझसे तु मान लिया कर । हॅसकर हरपल मेरे साथ जीया कर ।। मैं दबी हॅसी तुझे याद करती हूँ । हर शाम और सुबह तुझसे दूर रहती हूँ । दिन भर और व्यस्त रह कहीं खोया तु रहता है । कोई पूछे मन तुझे तु झूठ कहता है ।। आ पास साथ जी ले हम । शाम के मनमोहक दृश्य सी ले हम । किसी की जरूरत फिर हमें कहाँ । स्वार्थ भरे जग में मन का कहाँ ।। आ हॅस ले साथ में फिर । शामें गुजर रही और उम्र के दिन । ढलते दिन शामें रूकसत करती है । मुस्कुरा हमेशा जिन्दगी कहती है ।। Kavitarani1  84

मन का बोझ भारी | Man ka bojh bhari

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मन का बोझ भारी  हाय ! बोझ भारी । कैसी काया ये ?  भावनाओं का रहता ज्वार भारी । हाय ! बेरी मन का तो बोझ भारी ।। साथ जग सारा,  कहता और देता सहारा । पास अपनों के अपने स्वार्थ भारी । अपनी धुन का धुनी मन मेरा, सुनता रहता बाहरी । लेता सबके शब्दों को मन पर, जब है खुद के दुखड़े भारी । हाय ! मन के ऊपर बढ़ते बोझ भारी ।। कैसी करनी ?   कैसी भरनी ?  अपनी नाव करनी वैतरणी । बोध सबका ज्ञात, अज्ञात की जानता जात । करता ना भेद-पात, दात देता और समझता बात सारी । समायोजन, समाज और आजीविका का, उसपे स्वार्थ करता प्रहार ही । चलता रहता काया का काल भी, और मन पर आरी । हाय ! मन पर बोझ भारी ।। कंचन काया काँच सी चमके, खींच चमक तन भी चमके । मोह-मोह के मोह में उलझे, नासमझि में समय बीते । बीते दिन, महिने, साल और जीवन प्रहरी । सोंच ! मन पर मोह भारी ।। कल का कोरा कागज आज, जगह नहीं लिखने की । सुर नहीं, ताल नहीं,  तो लिखता-मिटाता गीत खुद  ही । खुद ही लिये चल रहा, भु ल रहा की ये मन किसकी करता सवारी । तेज गति भाग रहा है इसके शौक भारी । बढ़ती उम्र और बढ़ती बातें करतीं रहती उलझनें ही । मन क...

तेरी कमी है | Teri Kami hai

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तेरी कमी है  शब्दों की माला में,  प्यार के फुलों की कमी है । मेरे गीतों की लत में,  तेरे अश्रों की कमी है । यूँ तो कई अफसानें हैं मेरे,  पर सबमें तुझसे जज्बातों की कमी है । मेरी जिन्दगी की बसंत अधुरी है,  मेरी बारिश में बुँदों की कमी है । मेरे गालों की नमी में,  बस तेरी कमी है ।। साँझ का सुरज निहारे,  क्षितिज में तेज की कमी है । भौर की दौड़ पुकारे,  दिन में होंसले की कमी है । यूँ तो भरे पड़े है सपनें कई,  पर आशा की मध्यम होती जोत में ईधंन की कमी है । मेरी जीवनवृत की कहानियों में,  पूर्णांक और सार की कमी है । अधुरी रही ख़्वाहिशों की तह में,  बस तेरी कमी है ।। पथरीले रास्तों में,  जोश की कमी है । अँधेरी रातों में,  साहस की कमी है । तेज धूप वाले दिनों में,  तेरे आँचल की कमी है । मेरे बेबाक बोल में,  तेरी सटीकता की कमी है । मेरे मंजिल के पाने पर भी, बस तेरी कमी है ।। एकान्त, शांत मन बोझिल जो अहसास तेरी कमी है । उदास, क्लाँत मन भारी जो ज्ञात तेरी कमी है । हताश,भ्रांत मन चोटिल जो जान तेरी कमी है । यूँ तो सब है होने को ...

मेरा भाग्य | Mera bhagya

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मेरा भाग्य  कट गई रात करवटों में,  बह गये दिन सलवटों में,  बदल गई दुनिया दौड़ भाग में,  पर कुछ रह गया बदलना, वो मेरा भाग्य  । कल भी चाह में किसी की था, कल भी सपने सुकून के देखता था, होती थी बातें गाड़ी, पैसे और बगंले की, एक साथी और खुशियों की,  बहुत कुछ सोंचा था बदल देने की, बहुत कुछ बदला है, ये नहीं,  समाज, घर, लोग, बोली सब बदलें है, पर एक जो रह गया बदलना बाकि, वो मेरा भाग्य है ।। पलको को नम कर गम छिपाये, डायरी में लिखे लोगों से छिपाये, मुस्कान चेहरे पर रख दुःख दुर रखा, एकान्त में बैठ सुख का मनन किया, सब कुछ छुट गया पिछे अपनी मातृ भूमि के साथ,  कुछ नहीं छुटा पिछे वो था, भेरा भाग्य ।। कट जायेंगे दिन-रात उम्र के साथ,  जैसे नदिया मिलती सागर में लहरों के साथ,  हिरे मन के भी अंतिम मुकाम तक जायेंगे,  जो घटना है छूटेगा और साथ रहेगा, वो मेरा भाग्य  ।। Kavitarani1  76

तुझे पता है | tujhe pta hai

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तुझे पता है  ये बस मुझे पता है और तुझे यकीन है । सब जो समझते है वो सब खाली भ्रम है ।। जी रहा हूँ मैं अकेले पर सुनापन भी है । खुशी दिखती है पर मुस्कान खफा है ।। तुझ बिन रह रहा हूँ ये सवाल सा है । रह ना पाता हूँ तुझ बिन ये जवाब है ।। ये बस मुझे समझ आता है, और तुझे पता है । सब जो सोंचते है वो सच कहाँ ।। मैं अधूरा हूँ बिन तुम्हारे हमेशा से । और दौड़ रहा हूँ तुझसी पाने को मैं ।। तु नहीं चाहिये मुझे ये मुझे पता है । तुझसी ही मुझे चाहिये ये तुझे पता है ।। कोशिशें बेहतरी की नाकाम है । आजमाइशें प्यार की बेकार है ।। रहनुमा में सासों का जो चल रही है । तेरी चाह बिझड़ने से जल रही है ।। हालात बदतर जब यादें तन्हा हैं । लम्हे खौफजदा जब बातें तन्हा है ।। अन्दाज महसूस एकान्त जिन्दगी मजा है । शब्दों का सार बस तुझे पता है ।। चल रही खुशी से जिन्दगी ये फंसाने है । अपनी आप बस मुझे पता है  ।। कैसे कट रही जिन्दगी में बस मुझे पता है । ये बस मुझे पता है और तुझे और खबर है ।। Kavitarani1  74

अस्तांचल लुभाये | Astanchal lubhaye

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अस्तांचल लुभाये  कोरे नैना ख्वाब सजाये । एकान्त मन तुझे बुलाये । पूर्वांचल से चला रवि । अस्तांचल में मन लुभाये ।। कोई कागज़ शब्द सजाये । मन का बोझ उतरा जाये । शीत हवा सिहरन बढ़ाये । बैठा एकान्त मुझे अस्तांचल लुभाये ।। ज्ञान वेदी सास पढ़ी । पूर्वांचल से याद जुड़ी । सपनों में लक्ष्य आये । शांत मन को अस्तांचल लुभाये  ।। दिन की दौड़ भाग । चरम पर अपनी आग । सुर्योदय सी आभा दिखाये । जब अस्तांचल रवि लुभाये  ।। दिन, पहर, साल गुजरे । देख दृश्य कई दृश्य गुजरे । कई नये मित्र दिन में मिल जाये । शाम को एकान्त अस्तांचल लुभाये  ।। अधुरे लब्ज, अधुरे शब्द । अधुरा ज्ञान मुझे झुकाये । अस्थिर दुनिया-जीवन को । दिखता समझाये, अस्तांचल लुभाये ।। Kavitarani1  71

कोई पग फेरी कर जाये | Koi pag pheri kar jaye

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कोई पग फेरी कर जाये  विरान महल पड़ा हुआ,  उजड़े खलिहान सा ही गया । मेरे मन पर अब जोर नहीं,  तन पर मन भी हावी हुआ । कोई राग कहे, कोई रोग कहे । कोई कहे ये शांत हुआ,  कोई इसे अशांत कहे । मेरे मन को फिर खिला जाये । कोई आये पग फेरी कर जाये ।। जो धुल चड़ी है मैदान पर, अपने पग निशान छोड़ जाये । कोई आये तो महक लाये, कुछ बीज अनोखे छोड़ जाये । वृक्ष बनू हरियाली होए,  सब और फिर खुशहाली होए । मन करे विलाप, रोये, आखी-आखी रात जगे । सुबह से बौर करे, भौर ये बरबाद करे । मेरे पर काबु  कर जाये, कोई खैले, खैल खिला जाये । कोई भूले भटके से सही,  कोई पग फेरी कर जाये ।। आराम नहीं पल भर का, अब राम भजू, जीवन या । करे विनती हर रोज यूं ही, या पड़ा रहे विरान सा । मेरे मन पर जाले पङ रहे अब, खलिहान बंजर हो रहा अब । धूल उड़ रही, मिट्टी उड़ रही,  सपने जीवन के हवा हुए । कोई पानी की फुहार बने, फिर से मिट्टी की पकड़ बने । हरियाली की आस जगे, कोई आये मन लगा जाये ।। मैं ख्वाब सोंच रहा सारे, होये नहीं पूरे वो सारे । अधूरे रह गये कुछ जो, कुछ को पाया है कुछ पास है । जो मन की आस रह गई, वो ...

क्यों हम मिले नहीं | Kyon hum mile nahi

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क्यों हम मिले नहीं  कितने साल बित गये दोनों को बात करते-करते ? क्यों एक दिन साथ ना बिताया है ? कितने महिने बित गये दोनों को प्यार का इजहार करते-करते ? क्यों रह जाता सफर अकेले में ? जब वादे होते साथ-साथ जाने के । कुछ सवाल बने रह गये मेरे । क्या इनका जवाब तुम्हारे पास है ! मैं अकेला अपनी धुन का चलता आया हूँ । पतझड़, सावन, बसंत, बहार के मौसम देखते आया हूँ । कोई मौसम मन का साथ किसी के गुजरा नहीं । सोंच रहाँ हूँ इस बार कहीं चलें और चलो तुम भी । क्या छुपा रह गया जो तुमने बताया नहीं ? क्या कोई राज रह गया कहीं राज ही ? क्यों इतने सालों बाद भी हम है जैसे नये ही । बातों में भी दिखती नहीं गहराई हीर रांझे सी । कहीं रोमियों-जुलियट बनने का ख्वाब नहीं । ना सोनी-महिवाल की मैंने बात कही । एक ही जिंदगी पास तेरे-मेरे । फिर क्यों हम कभी मिलते नहीं । कितनी इच्छायें रह गयी मन में मेरे । कितनी बातें आई और अब गुम गई । कब वो स्पर्श याद रहेगा मुझे । जो कभी कहते-कहते तुम हॅसी थी । बात मन में अब सवाल बनी है । क्यों इतने साल बाद भी हम मिले नहीं  ।। Kavitarani1  59